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___{908} संरम्भ-समारम्भे आरम्भे य तहेव य। वयं पवत्तमाणं तु नियतेज जयं जई ॥
(उत्त. 24/23) यतना-संपन्न यति संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ में प्रवर्तमान वचन का निवर्तन (अर्थात् नियन्त्रण) करे।
{909) एयाओ पंच समिईओ चरणस्य य पवत्तणे। गुत्ती नियत्तणे वुत्ता असुभत्थेसु सव्वसो॥
(उत्त. 24/26) उक्त पांच समितियां चारित्र की प्रवृत्ति के लिए हैं। और तीन गुप्तियां सभी अशुभ विषयों से निवृत्ति के लिए हैं।
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{910) एताश्चारित्रकायस्य जननात्. परिपालनात् । संशोधनाच्च साधूनां मातरोऽष्टयै प्रकीर्तिताः॥
___ (है. योग. 1/45) उपर्युक्त पांच समितियां और तीन गुप्तियां साधुओं के चारित्र-रूपी शरीर को माता की तरह 卐 जन्म देती हैं, उसका परिपालन करती हैं, उसकी (हिंसादि दोष-जनित) अशुद्धियों को दूर करती है
हैं एवं उसे स्वच्छ निर्मल रखती हैं, इसलिए वे आठ प्रवचन-माता' के नाम से प्रसिद्ध हैं।
10 अहिंसा व्रत की भावनाएं
{911) महाणुव्रतयुक्तानां स्थिरीकरणहे तवः। व्रतानामिह पञ्चानां प्रत्येकं पञ्च भावनाः॥
(ह. पु. 58/117) महाव्रत और अणुव्रत से युक्त मनुष्यों को अपने व्रत में स्थिर रखने के लिए उक्त 卐 पांचों व्रतों में प्रत्येक की पांच-पांच भावनाएं कही गई हैं। FFFFFFFER
अहिंसा-विश्वकोश/3651