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{904) सम्यग्दण्डो वपुषः सम्यग्दण्डस्तथा च वचनस्य। मनसः सम्यग्दण्डो गुप्तीनां त्रितयमवगम्यम्॥
(पुरु. 7/6/202) (जीव-रक्षा को दृष्टि में रखते हुए) शरीर को भली प्रकार शास्त्रोक्त विधि से वश में करना, तथा वचन का भली प्रकार अवरोधन करना और मन का सम्यक्रूप से निरोध 卐 करना-इस प्रकार तीन गुप्तियों को जानना चाहिये।
{905} वाकायचित्तजानेकसावधप्रतिषेधकम् । त्रियोगरोधकं वा स्याद्यत्तद् गुप्तित्रयं मतम्॥
(ज्ञा. 18/4/889) जो वचन, काय और मन- इन तीनों योगों से उत्पन्न होने वाली अनेक प्रकार की (हिंसादि) पाप-प्रवृत्ति को रोकती हैं उनको अथवा इन तीनों योगों का जो निरोध करती हैं, वे तीन गुप्तियां मानी गयी हैं।
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{906) एवं समितयः पञ्च गोप्यास्तिस्रस्तु गुप्तयः। वाङ्मन:काययोगानां शुद्धरूपाः प्रवृत्तयः॥
(ह. पु. 2/127) इस प्रकार इन पांच समितियों का तथा मनोयोग, वचनयोग और काययोग की शुद्ध प्रवृत्तिरूप तीन गुप्तियों का पालन करना चाहिए।
{907)
संरम्भ-समारम्भे आरम्भे य तहेव य। मणं पवत्तमाणं तु नियतेज जयं जई॥
(उत्त. 24/21) ___ यतना-संपन्न यति संरम्भ, समारम्भ और आरम्भ में प्रवृत्त मन का निवर्तन करे (मन के को हटावे)।
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[जैन संस्कृति खण्ड/364