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{897) एदाहिं सया जुत्तो समिदीहिं महिं विहरमाणो दु। हिंसादीहिं ण लिप्पइ जीवणिकाआउले साहू ॥
" (मूला. 4/326) इन समितियों से युक्त साधु हमेशा ही जीव-समूह से भरे हुए भूतल पर विहार करते हुए भी हिंसादि पापों से लिप्त नहीं होते हैं।
(मूला.
{898) समिदिदिढणावमारुहिय अप्पमत्तो भवोदधिं तरदि। छज्जीवणिकायवधादिपावमगरेहिं अच्छित्तो॥
(भग. आ. 1835) प्रमादरहित साधु समितिरूपी दृढ़ नाव पर आरूढ़ होकर छह काय के जीवों के घात 卐 से होने वाले पापरूपी मगरमच्छों से अछूता रहकर संसार समुद्र को पार कर लेता है।
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(899)
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काएसु णिरारंभे फासुगभोजिम्मि णाणरइयम्मि। मणवयणकायगुत्तिम्मि होइ सयला अहिंसा हु॥
- (भग. आ. विजयो. 813) ___ जो आरम्भ का त्यागी है, प्रासुक भोजन करता है, ज्ञानभावना में मन को लगाता है । और तीन गुप्तियों का धारी है, वही सम्पूर्ण अहिंसा का पालक है।
{900) मनोगुप्त्येषणादानेर्याभिः समितिभिः सदा। दृष्टान्न-पानग्रहणेनाहिसां भावयेत् सुधीः॥
(है. योग. 1/26) मनोगुप्ति, एषणासमिति, आदानभांड-निक्षेपण समिति, ईर्यासमिति तथा प्रेक्षित 卐 (देख कर) अन्न-जल ग्रहण करना, इन पांचों भावनाओं से बुद्धिमान् साधु को चाहिए कि है ॐ वह अहिंसाव्रत को पुष्ट करे।
EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEES [जैन संस्कृति खण्ड/B62