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{859) विउद्वितेणं समयाणुसिढे डहरेण वुड्ढेणऽणुसासिते तु। अब्भुट्ठिताए घडदासिए वा अगारिणं वा समयाणुसिढे ॥ ण तेसु कुज्झे ण य पव्वहेजा ण यावि किंची फरुसं वदेजा। तहा करिस्सं ति पडिस्सुणेज्जा सेयं खु मेयं ण पमाद कुज्जा॥
(सू.कृ. 1/14/8-9) __किसी शिथिलाचारी व्यक्ति के द्वारा समय (धार्मिक सिद्धांत) के अनुसार, किसी # छोटे या बड़े के द्वारा, किसी पतित घटदासी के द्वारा अथवा किसी गृहस्थ के द्वारा समय है
(सामाजिक सिद्धांत) के अनुसार अनुशासित होने पर- उन (अनुशासन करने वालों) पर 卐 क्रोध न करे, उन्हें चोट न पहुंचाए, कठोर वचन न कहे, 'अब मैं वैसा करूंगा', 'यह मेरे । लिए श्रेय हैं'- ऐसा स्वीकार कर फिर प्रमाद न करे।
1861 तहागयं भिक्खुमणंतसंजतं, अणेलिसं विण्णु चरंतमेसणं। तुदंति वायाहि अभिद्दवं णरा, सरेहिं संगामगयं व कुंजरं ॥ तहप्पगारेहिं जणेहिं हीलिते, ससद्दफासा फरुसा उदीरिया। तितिक्खए णाणि अदुट्ठचेतसा, गिरि व्व वातेण ण संपवेवए॥
(आचा. 2/16/सू. 794-95, गा. 136-137) उस तथाभूत अनन्त (एकेन्द्रियादि जीवों) के प्रति सम्यक् यतनावान् अनुपम म संयमी आगमज्ञ विद्वान एवं आगमानुसार आहारादि की एषणा करने वाले भिक्षु को देख कर 卐 मिथ्यादृष्टि अनार्य मनुष्य उस समय असभ्य वचनों के तथा पत्थर आदि के प्रहार से उसी
तरह व्यथित कर देते हैं जिस तरह संग्राम में वीर योद्धा, शत्रु के हाथी को बाणों की वर्षा से EE व्यथित कर देता है। 卐 असंस्कारी एवं असभ्य (तथाप्रकार के) जनों द्वारा कथित आक्रोशयुक्त शब्दों तथा ॐ प्रेरित शीतोष्णादि स्पर्शों से पीड़ित ज्ञानवान भिक्षु प्रशान्तचित से (उन्हें) सहन करे। जिस
प्रकार वायु के प्रबल वेग से भी पर्वत कम्पायमान नहीं होता, ठीक उसी प्रकार संयमशील मुनि भी इन परीषहोपसर्गों से विचलित न हो।
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अहिंसा-विश्वकोश|347]