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{864) हतपुव्वो तत्थ डंडेणं अदुवा मुट्ठिणा अदु फलेणं। अदु लेलुणा कवालेणं हंता हंता बहवे कंदिसु॥ 89॥ मंसाणि छिण्णपुव्वाई उट्ठभियाए एगदा कायं। परिस्सहाई लुंचिंसु अदुवा पंसुणा अवकरिंसु ॥ 90॥ उच्चालइय णिहणिंसु अदुवा आसणाओ खलइंसु । वोसट्ठकाए पणतासी दुक्खसहे भगवं अपडिण्णे ॥91 ॥ सूरो संगामसीसे वा संडे तत्थ से महावीरे। पडिसेवमाणो फरुसाइं अचले भगवं रीयित्था॥ 92 ॥
(आचा. 1/9/3 सू. 302-305) उस लाढ देश में (गांव से बाहर ठहरे हुए भगवान् को) बहुत से लोग डण्डे से या मुक्के से अथवा भाले आदि शस्त्र से या फिर मिट्टी के ढेले या खप्पर (ठीकरे) से मारते, # फिर 'मारो-मारो' कह कर होहल्ला मचाते। (89)
उन अनार्यों ने पहले एक बार ध्यानस्थ खड़े भगवान् के शरीर को पकड़ कर मांस काट लिया था। उन्हें (प्रतिकूल) परीषहों से पीड़ित करते थे, कभी-कभी उन पर धूल फेंकते थे। (90) 卐 कुछ दुष्ट लोग ध्यानस्थ भगवान् को ऊंचा उठा कर नीचे गिरा देते थे, कुछ लोग
आसन से (धक्का मार कर) दूर धकेल देते थे, किन्तु भगवान् शरीर का व्युत्सर्ग किए हुए परीषह सहन के लिए प्रणबद्ध, कष्टसहिष्णु-दुःखप्रतीकार की प्रतिज्ञा से मुक्त थे। अतएव वे 卐 इन परीषहों-उपसर्गों से विचलित नहीं होते थे। (91)
जैसे कवच पहना हुआ योद्धा युद्ध के मोर्चे पर शस्त्रों से विद्ध होने पर भी विचलित नहीं होता, वैसे ही संवर का कवच पहले हुए भगवान् महावीर लाढादि देश में परीषह-सेना 卐 से पीड़ित होने पर भी कठोरतम कष्टों का सामना करते हुए- मेरु पर्वत की तरह ध्यान में 卐 निश्चल रहकर मोक्ष-पथ में पराक्रम करते थे। (92)
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[जैन संस्कृति खण्डB50