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{854)
जो सहइ उ गाम-कंटए, अक्कोस-पहार-तजणाओ य। भय-भेरवसद्द संपहासे, समसुह-दुक्खसहे यजे, स भिक्खू॥ (11)
(दशवै. 10/531) जो (साधु) इन्द्रियों को कांटे के समान चुभने वाले आक्रोश-वचनों, प्रहारों, तर्जनाओं और (वेताल आदि के) अतीव भयोत्पादक अट्टहासों को सहन करता है तथा 卐 सुख-दुःख को समभावपूर्वक सहन कर लेता है. वही सुभिक्षु है। (11)
Oहिंसावर्धक क्रोध का विजेताः क्षमाशील साधु
{855) 卐 [बिइयं...] कोहो ण सेवियव्वो, कुद्धो चंडिक्किओ मणूसो अलियं भणेज,卐
पिसुणं भणेज, फरुसं भणेज, अलियं-पिसुणं-भणेज्ज, कलहं करिज्जा, वेरं करिजा, विकहं करिज्जा, कलहं-वेरं-विकहं करिज्जा, सच्चं हणेज्ज, सीलं हणेज, विणयं । हणेज, सच्चं-सीलं-विणयं हणेज, वेसो हवेज, वत्थु हवेज, गम्मो हवेज, वेसो
वत्थु-गम्मो हवेज, एयं अण्णं च एवमाइयं भणेज कोहग्गि-संपलित्तो तम्हा कोहो 卐ण सेवियव्वो। एवं खंतीइ भाविओ भवइ अंतरप्पा संजयकर-चरण-णयण-वयणो ' ॐ सूरो सच्चज्जवसंपण्णो।
(प्रश्न. 2/2/सू.123) [सत्य महाव्रती की दूसरी भावना क्रोधनिग्रह-क्षमाशीलता है।] (सत्य के आराधक, को) क्रोध का सेवन नहीं करना चाहिए। क्रोधी मनुष्य रौद्रभाव वाला हो जाता है और 卐 (ऐसी अवस्था में) असत्य भाषण कर सकता है (या करता है)। वह पिशुन-चुगली के वचन बोलता है, कठोर वचन बोलता है। मिथ्या, पिशुन और कठोर- तीनों प्रकार के वचन
बोलता है। कलह करता है, वैर-विरोध करता है, विकथा करता है तथा कलह-वैरC विकथा-ये तीनों करता है। वह सत्य का घात करता है, शील-सदाचार का घात करता है,
विनय का विघात करता है और सत्य, शील तथा विनय-इन तीनों का घात करता है। ॐ असत्यवादी लोक में द्वेष का पात्र बनता है, दोषों का घर बन जाता है और अनादर का पात्र
बनता है, तथा द्वेष, दोष और अनादर-इन तीनों का पात्र बनता है। ॐ क्रोधाग्नि से प्रज्वलितहृदय मनुष्य ऐसे और इसी प्रकार के अन्य वचनों को बोलता है। अतएव क्रोध का सेवन नहीं करना चाहिए। इस प्रकार क्षमा से भावित अन्तरात्मा
अन्त:करण वाला हाथों, पैरों, नेत्रों और मुख के संयम से युक्त, शूर साधु सत्य व आर्जव से ॐ सम्पन्न होता है।
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अहिंसा-विश्वकोश/345]