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{805) बाह्येषु दशसु वस्तुषु, ममत्वमुत्सृज्य निर्ममत्वरतः। स्वस्थः सन्तोषपरः परिचितपरिग्रहाद्विरतः॥
__ (रत्नक. श्रा. 145) ___जो मनुष्य बाह्य दश परिग्रहों से सर्वथा ममता छोड़ निर्मोही हो कर मायाचाररहित, परिग्रह की आकांक्षा का त्यागी होता है, वह 'परिग्रहत्यागप्रतिमावान्' कहलाता है।
HO अहिंसा-साधक का प्रशस्त मरणः सल्लेखना का आश्रयण
{806) सोऽथावश्यकयोगानां भंगे मृत्योरथागमे। कृत्वा संलेखनामादौ, प्रतिपद्य च संयमम्॥
(है. योग. 3/148) श्रावक जब यह देखे कि आवश्यक संयम-प्रवृत्तियों (धार्मिक क्रियाओं) के करने ॥ 9 में शरीर अब अशक्त व असमर्थ हो गया है अथवा मृत्यु का समय सन्निकट आ गया है; तो *
सर्वप्रथम संयम को अंगीकार करके 'संलेखना' करे।
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{807) मरणान्तेऽवश्यमहं विधिना सल्लेखनां करिष्यामि। इति भावनापरिणतोऽनागतमपि पालयेदिदं शीलम्॥
(पुरु. 5/2/176) 'मैं मरण के अन्त समय अवश्य ही शास्त्रोक्त विधि से सल्लेखना धारण करूंगा'इस प्रकार भावना रूप परिणति करके, मरणकाल आने से पहले ही, यह सल्लेखनाव्रत पालना चाहिये।
{808} उपसर्गे दुर्भिक्षे, जरसि रुजायां च निःप्रतीकारे। धर्माय तनुविमोचनमाहुः सल्लेखनामार्याः॥
(रत्नक. श्रा. 122) अटल उपसर्ग आने पर, अकाल पड़ने पर, बुढ़ापा आने पर और असाध्य रोग होने पर रत्नत्रयस्वरूप धर्मपालन करने के लिए कषाय को कृश करते हुए शरीर के त्याग करने को 'सल्लेखना' कहते हैं। HEEFFEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEET [जैन संस्कृति खण्ड/330