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YERSEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEng 卐 वह (अनारम्भजीवी) साधक किसी भी जीव की हिंसा न करता हुआ, वस्तु के
स्वरूप को अन्यथा न कहे (मृषावाद न बोले) । (यदि) परीषहों और उपसर्गों का स्पर्श हो 卐 तो उनसे होने वाले दुःखस्पर्शों को विविध उपायों (संसार की असारता की भावना आदि)
से प्रेरित होकर समभावपूर्वक सहन करे। ऐसा (अहिंसक और सहिष्णु) साधक शमिता या समता का पारगामी, (उत्तम चारित्र-सम्पन्न)कहलाता है।
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{826) इति कम्मं परिण्णाय सव्वसो से ण हिंसति, संजमति, णो पगब्भति, उवेहमाणे पत्तेयं सातं, वण्णादेसी णारभे कंचणं सव्वलोए।
___(आचा. 1/5/3 सू. 160) इस प्रकार कर्म (और उसके कारण) को सम्यक् प्रकार जान कर वह (साधक) सब प्रकार के (किसी जीव की) हिंसा नहीं करता, (शुद्ध) संयम का आचरण करता है, (असंयम-कर्मों या अकार्य में प्रवृत्त होने पर) धृष्टता नहीं करता। प्रत्येक प्राणी का सुख अपना-अपना (प्रिय) होता है, यह देखता हुआ (वह किसी की हिंसा न करे)। मुनि समस्त लोक (सभी क्षेत्रों) में भी (शुभ या अशुभ)आरम्भ (हिंसा) को सौन्दर्य-वृद्धि या प्रशंसा का अभिलाषी होकर न करे।
(827) ते अणवकंखमाणा, अणतिवातेमाणा, अपरिग्गहमाणा, णो परिग्गहावंति सव्वावंति च णं लोगंसि, णिहाय दंडं पाणेहिं पावं कम्मं अकुव्वमाणे एस महं अगंथे # वियाहिते।
(आचा. 1/8/3 सू. 209) वे काम-भोगों की आकांक्षा न रखने वाले, प्राणियों के प्राणों का अतिपात और 卐 परिग्रह न रखते हुए (निर्ग्रन्थ मुनि) समग्र लोक में अपरिग्रहवान् होते हैं। जो प्राणियों के लिए (परितापकर) दण्ड का त्याग करके (हिंसादि) पाप कर्म नहीं करता, उसे ही महान् अग्रन्थ (ग्रन्थविमुक्त निर्ग्रन्थ) कहा गया है।
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[जैन संस्कृति खण्ड/336