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(831) पुढवीय समारंभं जलपवणग्गीतसाणमारंभं। ण करेंति ण कारेंति य कारेंतं णाणुमोदंति ॥
(मूला. 9/804) मुनि पृथ्वी का समारम्भ, जल, वायु, अग्नि और त्रस जीवों का आरम्भ (हिंसादि) ॐ न स्वयं करते हैं, न कराते हैं और न करते हुए को अनुमोदना ही देते हैं।
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{832 सम्मद्दमाणे पाणाणि बीयाणि हरियाणि य। असंजए संजयमन्नमाणे पावसमणे त्ति वुच्चई ॥
(उत्त. 17/6) ___ जो प्राणी (द्वीन्द्रिय आदि जीवों), बीज और वनस्पति का संमर्दन करता रहता है, 卐 जो असंयत होते हुए भी स्वयं को संयत मानता है, वह पापश्रमण कहलाता है।
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{833) __ घृततैलादिभिरभ्यंजनमपि न करोति प्रयोजनाभावादुक्तेन प्रकारेण घृतादिना ॥ कक्षारेण स्पृष्टा भूम्यादि- शरीरादि जंतवो बाध्यन्ते । त्रसाश्च तत्रावलनाः। उद्वर्त्तने इतस्ततः पततां व्याघात:। मूलत्वक्फलपत्रादेः पेषणे, दलने च महानसंयमः।
(भग. आ. विजयो. 92) साधु प्रयोजन होने से भी घी-तेल आदि से शरीर का अभ्यंजन नहीं करते, क्योंकि शास्त्रोक्त दृष्टि के अनुसार घी आदि से तथा क्षार से भूमि आदि तथा शरीर आदि में चिपटे 卐 जीवों को बाधा पहुंचती है। उद्वर्तन अर्थात् उबटन लगाने से शरीर से चिपटे त्रस जीव यहां-卐 वहां गिर कर मर जाते हैं, तथा उबटन तैयार करने के लिए वृक्ष की जड़, छाल, फल, पत्ते आदि को पीसने या दलने में महान् असंयम होता है।
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[जैन संस्कृति खण्ड/338