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{843) जह मे इट्ठाणिढे सुहासुहे तह सव्वजीवाणं।
(आचा. चू. 1/1/6) जैसे इष्ट-अनिष्ट, सुख-दुःख मुझे होते हैं, वैसे ही सब जीवों को होते हैं-ऐसा सदा म सोचना चाहिए।
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सम्मं मे सव्वभूदेसु वेरं मझं ण केणवि।
(नि.सा. 104) ___मेरा सब जीवों में साम्यभाव है, मेरा किसी के साथ वैर नहीं है। (ऐसी भावना ज्ञानी मुनि जन को सर्वदा रहती है।)
{845)
जिंदाए य पसंसाए दुक्खे यं सुहएसु य। सत्तूणं चेव बंधूणं चारित्तं समभावदो॥
(भा.पा. 72) निन्दा और प्रशंसा, दुःख और सुख तथा शत्रु और मित्र में समभाव से ही चारित्र (साधुजनोचित आचार) सम्पन्न होता है।
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{846)
माध्यस्थ्यलक्षणं प्राहुश्चारित्रं वितृषो मुनेः। मोक्षकामस्य निर्मुक्तचेलस्याहिंसकस्य तत् ॥
(आ. पु. 21/119) इष्ट-अनिष्ट पदार्थों में समताभाव धारण करने को सम्यक्चारित्र कहते हैं, वह है सम्यक्चारित्र यथार्थ रूप से तृष्णारहित, मोक्ष की इच्छा करने वाले, अचेल और हिंसा का सर्वथा त्याग करने वाले' मुनिराज के ही होता है।
[जैन संस्कृति खण्ड/342