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(822)
वसुधम्मि वि विहरंता पीडं ण करेंति कस्सइ कयाई । जीवेसु दयावण्णा माया जह पुत्तभंडेसु ॥
(मूला. 9/800) 卐
मुनि वसुधा पर विहार करते हुए भी कदाचित् किसी को भी पीड़ा नहीं पहुंचाते
! हैं । वे जीवों के प्रति उसी प्रकार दया भाव रखते हैं जैसे कि पुत्र-पुत्रियों के प्रति माता दया रखती है।
(823)
विहरन्तो महीं कृत्स्नां ते कस्याप्यनभिद्रुहः । मातृकल्पा दयालुत्वात्पुत्रकल्पेषु देहिषु ॥
समस्त पृथ्वी पर विहार करते हुए और किसी भी जीव से द्रोह नहीं करते हुए वे
मुनि दयालु होने से समस्त प्राणियों को पुत्र के तुल्य मानते थे और उनके साथ माता के 馬 समान व्यवहार करते थे ।
वियाहिते ।
(आ.पु.34/191)
(824)
महप्पसाया इसिणो हवन्ति । न हु मुणी कोवपरा हवन्ति ॥
(उत्त. 12/31 )
ऋषिजन महान् प्रसन्नचित्त होते हैं, अतः वे किसी पर क्रोध नहीं करते हैं ।
(825)
आवंती के आवंती लोगंसि अणारं भजीवी, एतेसु चेव अणारंभजीवी ।... विहिंसमाणे अणवयमाणे पुट्ठो फासे विप्पणोल्लए । एस समियापरियाए
( आचा. 1 /5 / 2 सू. 152 )
इस मनुष्य-लोक में जितने भी अनारम्भजीवी (अहिंसा के पूर्ण आराधक) हैं, वे
(इन सावद्य-आरम्भ में प्रवृत्त गृहस्थों) के बीच रहते हुए भी अनारम्भ - जीवी (विषयों से निर्लिप्त - अप्रमत्त रहते हुए जीते ) हैं ।
出
事事事卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐编编 अहिंसा - विश्वकोश | 335]
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