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FO साधु-चर्या और अहिंसा
O अहिंसक आचार-विचारः साधु-चर्या का अभिन्न अंग
{814) सव्वे जीवा वि इच्छंति जीविउं, न मरिजिउं। तम्हा पाणवहं घोरं, निग्गंथा वजयंति णं॥ (10)
(दशवै. 6/273) ___ सभी जीव जीना चाहते हैं मरना नहीं, इसलिए निर्ग्रन्थ साधु (या साध्वी) प्राणिवध को घोर (भयानक जान कर) उसका परित्याग करते हैं। (10)
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18151 तच्चिन्त्यं तद्भाष्यं तत्कायं भवति सर्वथा यतिना। नात्मपरोभयबाधकमिह यत्परतश्च सर्वाद्धम्॥
__ (प्रशम. 147) साधु को उसी का चिन्तन करना चाहिये, वही बोलना चाहिये और वही कार्य करना चाहिए, जो अपने और दूसरे के लिये, इस लोक और परलोक में सर्वदा दुःखदायी या बाधक न हो।
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{816) सर्वजीवदया हि यते: पक्षः।
(भग. आ. विजयो. 96)
मुनि का पक्ष या प्रतिज्ञा है-सब जीवों पर दया करना।
1817)
जे ते अप्पमत्तसंजया ते णं नो आयारंभा, नो परारंभा, जाव-अणारंभा।
(व्या. प्र. 1/1/7) आत्मसाधना में अप्रमत्त रहने वाले साधक न अपनी हिंसा करते हैं, न दूसरों की, 卐 ॐ वे सर्वथा अनारंभ-अहिंसक रहते हैं। REF
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अहिंसा-विश्वकोश/3331