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(सल्लेखनाः आत्महत्या नहीं)
{812} यो हि कषायाविष्टः कुम्भकजलधूमकेतुविषशस्त्रैः। व्यपरोपयति प्राणान् तस्य स्यात्सत्यमात्मवधः॥ नीयन्तेऽत्र कषाया हिंसाया हेतवो यतस्तनुताम्। सल्लेखनामपि ततः प्राहुरहिंसाप्रसिद्ध्यर्थम्॥
(पुरु. 5/4-5/178-179) निश्चय ही क्रोधादि कषायों से घिरा हुआ जो पुरुष श्वास-निरोध, जल, अग्नि, विष, 卐 शस्त्रादि से अपने प्राणों को पृथक् करता है (अन्त करता है), उसका यह कार्य तो वास्तव 卐 में आत्मघात ही होता है।
किन्तु इस सल्लेखना-मरण में हिंसा की हेतुभूत कषाय ही क्षीणता को प्राप्त होती हैं, इसलिये सल्लेखना का प्रयोजन अहिंसा की सिद्धि को ही व्यक्त करता है।
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{813} रागद्वेषमोहाविष्टस्य हि विषशस्त्राद्युपकरणप्रयोगवशाद् आत्मानं घ्रतः स्वघातो 卐 भवति। न सल्लेखनां प्रतिपन्नस्य रागादयः सन्ति, ततो नात्मवधदोषः। उक्तं चः
मरणेऽवश्यंभाविनि कषायसल्लेखनातनूकरणमात्रे । रागादिमन्तरेण व्याप्रियमाणस्य नात्मघातोऽस्ति ॥
___ (पुरु. 5/3/177) अवश्य ही होने वाले मरण की स्थिति आने पर, कषाय-सल्लेखना (कषायों को कृश करने मात्र के व्यापार) में प्रवर्त्तमान पुरुष आत्मघात का दोषी नहीं है क्योंकि उसके
अन्तरंग में सल्लेखना के सन्दर्भ में राग (या द्वेष)आदि का सद्भाव नहीं है। राग, द्वेष और 卐 मोह से युक्त होकर जो विष, शस्त्र आदि उपकरणों का प्रयोग करके उनसे अपना घात करता है
है, उसे आत्मघात का दोष लगता है। परन्तु 'सल्लेखना' को प्राप्त हुए जीव के रागादिक तो हैं नहीं, इसलिए आत्मघात का दोष नहीं लगता।
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[जैन संस्कृति खण्ड/332