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(764) भोगोपभोगहेतोः स्थावरहिंसा भवेत् किलामीषाम् । भोगोपभोगविरहाद् भवति न लेशोऽपि हिंसायाः॥
(पुरु. 4/122/158) निश्चय ही इस देशव्रती श्रावक द्वारा भोग-उपभोग के कारण स्थावर जीवों की हिंसा होती है, परन्तु भोग-उपभोग के त्याग से वह हिंसा बिलकुल भी नहीं होती।
1765) अविरुद्धा अपि भोगा निजशक्तिमपेक्ष्य धीमता त्याज्याः। अत्याज्येष्वपि सीमा कार्यकदिवानिशोपभोग्यतया ॥
(पुरु.4/128/164) बुद्धिमान् पुरुष अपनी शक्ति देखकर अविरुद्ध (दोष रहित) भोग को भी त्याग दे। यदि उचित भोग-उपभोग का त्याग न हो सके तो उसमें भी एक दिवस-रात की उपभोग्यता 卐 से मर्यादा करनी चाहिये।
{766) इति यः परिमितभोगैः सन्तुष्टस्त्यजति बहुतरान् भोगान् । बहुतरहिंसाविरहात्तस्याऽहिंसा विशिष्टा स्यात् ॥
___(पुरु.4/130/166) जो गृहस्थ इस प्रकार मर्यादित भोगों से सन्तुष्ट होकर बहुत से भोगों को त्याग देता म है, उसके बहुत हिंसा के त्याग से विशेष अहिंसाव्रत होता है।
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HOMसा आदि पापों का नियतकालिक त्याग (सागायिक अनुछान)
{767) सामयिकं प्रतिदिवसं, यथावदप्यनलसेन चेतव्यम्। व्रतपञ्चकपरिपूरण-कारणमवधान-युक्तेन ॥
. (रत्नक. श्रा. 101) आलस्यरहित सावधान मनुष्य शास्त्रोक्ति विधि के अनुसार प्रतिदिन भी सामायिक 卐 अवश्य करें। क्योंकि भली प्रकार सामायिक करना पांचों अणुव्रतों को महाव्रतरूप करने में करना है। अर्थात् यथाविधि सामायिक करते समय अणुव्रत भी महाव्रत सरीखे हो जाते हैं। EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEER
अहिंसा-विश्वकोश।3191