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___(791) मेधां पिपीलिका हन्ति, यूका कुर्याज्जलोदरम्। कुरुते मक्षिका वान्तिं, कुष्ठरोगं च कोकिलः॥ कण्टको दारुखण्डं च वितनोति गलव्यथाम्। व्यंजनान्तर्निपतितस्तालु विध्यति वृश्चिकः॥ विलग्नश्च गले बालः स्वरभंगो हि जायते। इत्यादयो दृष्टदोषाः सर्वेषां निशि भोजने ॥
(है. योग. 3/50/52) रात को भोजन करते समय भोजन में यदि चींटी खाई जाय तो वह बुद्धि का नाश जो कर देती है। जूं निगली जाय तो वह जलोदर रोग पैदा कर देती है। मक्खी खाने में आ जाय
तो उलटी होती है, कनखजूरा खाने में आ जाय तो कोढ़ हो जाता है। कांटा या लकड़ी का 卐 टुकड़ा गले में पीड़ा कर देता है, अगर सागभाजी में बिच्छू पड़ जाय तो वह तालु को फाड़ 卐 देता है, गले में बाल चिपक जाय तो उससे आवाज खराब हो जाती है। रात्रि-भोजन करने जी में ये और इस प्रकार के अन्य कई दोष तो सबको प्रत्यक्ष विदित ही हैं।
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अर्कालोकेन विना भुञ्जानः परिहरेत् कथं हिंसाम् । अपि बोधितः प्रदीपे भोज्यजुषां सूक्ष्मजीवानाम् ॥
(पुरु. 4/97/133) सूर्य के प्रकाश बिना रात में भोजन करने वाला मनुष्य जलते हुए दीपक (के टिमटिमाते प्रकाश) में भोजन में मिले हुए सूक्ष्म जीवों की हिंसा किस प्रकार टाल सकता है? अर्थात् नहीं टाल सकता।
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रागाद्युदयपरत्वादनिवृत्ति तिवर्तते हिंसाम। रात्रिंदिवमाहरतः कथं हि हिंसा न संभवति ॥
(पुरु. 4/94/130) रागादि भावों के उदय की उत्कृष्टता के कारण अंत्यागभाव (परिग्रह) हिंसा का उल्लंघन नहीं करता, अर्थात् हिंसा-दोष का पात्र बनाता ही है, अतः रात और दिन आहार म करने वाले (तीव्र आहार-राग से युक्त व्यक्ति) को निश्चय ही हिंसा क्यों नहीं संभव होगी? ॐ अर्थात् अवश्य होगी।
[जैन संस्कृति खण्ड/326