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(794} यद्येवं तर्हि दिवा कर्त्तव्यो भोजनस्य परिहारः। भोक्तव्यं तु निशायां नेत्थं नित्यं भवति हिंसा॥ नैवं वासरभुक्तेर्भवति हि रागोऽधिको रजनिभुक्तौ । अन्नकवलस्य भुक्तेर्भुक्ताविव मांसकवलस्य ॥
___(पुरु. 4/95-96/131-132) __ (शंका-) यदि ऐसा है, अर्थात् सदाकाल भोजन करने में हिंसा है, तब तो दिन में है * भोजन करने का भी त्याग कर देना चाहिए और रात में भोजन करना चाहिए, क्योंकि इस 卐 तरह से हिंसा सदाकाल में नहीं होगी। (समाधान-) ऐसा नहीं है, क्योंकि अन्न के ग्रास के
खाने की अपेक्षा मांस के ग्रास खाने में जिस प्रकार राग अधिक होता है, उसी प्रकार दिन के भोजन की अपेक्षा रात्रि-भोजन में निश्चय ही अधिक राग होता है (और हिंसा भी अधिक होती है)।
{795)
रात्रौ यदि भिक्षार्थं पर्यटति त्रसान्स्थावरांश्च हन्यादुरालोकत्वात्।
(भग. आ. विजयो. 1179) यदि मुनि रात्रि में भिक्षा के लिए भ्रमण करता है तो त्रस और स्थावर जीवों का घात करता है, क्योंकि रात्रि में उनको देख सकना कठिन है।
{796) नाप्रेक्ष्य सूक्ष्मजन्तूनि निश्चयात् प्रासुकान्यपि। अप्युद्यत्केवलज्ञानैर्नादृतं यन्निशाऽशनम् ॥
(है. योग. 3/53) रात को आंखों से दिखाई न दें, ऐसे सूक्ष्म जंतु भोजन में हों तो चाहे विविध प्रासुक (निर्जीव) भोजन ही हो, रात को नहीं करना चाहिए। क्योंकि जिन्हें केवल ज्ञान' प्राप्त हो गया है, उन्होंने ज्ञान-चक्षुओं से जानते-देखते हुए भी रात्रि-भोजन को स्वीकार नहीं किया है।
FREENERY
अहिंसा-विश्वकोश। 327]