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________________ 卐 59 (764) भोगोपभोगहेतोः स्थावरहिंसा भवेत् किलामीषाम् । भोगोपभोगविरहाद् भवति न लेशोऽपि हिंसायाः॥ (पुरु. 4/122/158) निश्चय ही इस देशव्रती श्रावक द्वारा भोग-उपभोग के कारण स्थावर जीवों की हिंसा होती है, परन्तु भोग-उपभोग के त्याग से वह हिंसा बिलकुल भी नहीं होती। 1765) अविरुद्धा अपि भोगा निजशक्तिमपेक्ष्य धीमता त्याज्याः। अत्याज्येष्वपि सीमा कार्यकदिवानिशोपभोग्यतया ॥ (पुरु.4/128/164) बुद्धिमान् पुरुष अपनी शक्ति देखकर अविरुद्ध (दोष रहित) भोग को भी त्याग दे। यदि उचित भोग-उपभोग का त्याग न हो सके तो उसमें भी एक दिवस-रात की उपभोग्यता 卐 से मर्यादा करनी चाहिये। {766) इति यः परिमितभोगैः सन्तुष्टस्त्यजति बहुतरान् भोगान् । बहुतरहिंसाविरहात्तस्याऽहिंसा विशिष्टा स्यात् ॥ ___(पुरु.4/130/166) जो गृहस्थ इस प्रकार मर्यादित भोगों से सन्तुष्ट होकर बहुत से भोगों को त्याग देता म है, उसके बहुत हिंसा के त्याग से विशेष अहिंसाव्रत होता है। 明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明明那 HOMसा आदि पापों का नियतकालिक त्याग (सागायिक अनुछान) {767) सामयिकं प्रतिदिवसं, यथावदप्यनलसेन चेतव्यम्। व्रतपञ्चकपरिपूरण-कारणमवधान-युक्तेन ॥ . (रत्नक. श्रा. 101) आलस्यरहित सावधान मनुष्य शास्त्रोक्ति विधि के अनुसार प्रतिदिन भी सामायिक 卐 अवश्य करें। क्योंकि भली प्रकार सामायिक करना पांचों अणुव्रतों को महाव्रतरूप करने में करना है। अर्थात् यथाविधि सामायिक करते समय अणुव्रत भी महाव्रत सरीखे हो जाते हैं। EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEER अहिंसा-विश्वकोश।3191
SR No.016129
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages602
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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