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________________ 17611 听听听听听听听听听听 प्रविधाय सुप्रसिद्धर्मर्यादां सर्वतोऽप्यभिज्ञानैः। प्राच्यादिभ्यो दिग्भ्यः कर्तव्या विरतिरविचलिता॥ इति नियमितदिग्भागे प्रवर्तते यस्ततो बहिस्तस्य। सकलासंयमविरहाद् भवत्यहिंसाव्रतं पूर्णम्॥ __ (पुरु. 4/101-102/137-138) 卐 भली प्रकार प्रसिद्ध ग्राम, नदी, पर्वतादि भिन्न-भिन्न लक्षणों से. सभी दिशाओं में म मर्यादा करके पूर्वादि दिशाओं में गमन न करने की प्रतिज्ञा करनी चाहिये। जो इस प्रकार के म मर्यादा की हुई दिशाओं के अन्दर रहता है, उस पुरुष को उस क्षेत्र के बाहर के समस्त ॐ असंयम के त्याग के कारण पूर्ण रूप से अहिंसाव्रत होता है। Oअहिंसा व्रत का पूरक उपभोग-परिभोग-परिमाण व्रत ''卐卐 1762) भोगोपभोगमूला विरताविरतस्य नान्यतो हिंसा। अधिगम्य वस्तुतत्त्वं स्वशक्तिमपि तावपि त्याज्यौ॥ ___ (पुरु. 4/125/161) देशव्रती श्रावक को भोग और उपभोग के कारण से होने वाली हिंसा का दोष होता है 卐 है, अन्य प्रकार से नहीं, इसलिये वे दोनों-भोग और उपभोग भी, वस्तुस्वरूप को और अपनी शक्ति को भी जानकर अर्थात् शक्ति अनुसार, त्यागने योग्य हैं। 明弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱弱 ''' 卐''''' {763} एकमपि प्रजिघांसुर्निहन्त्यनन्तान्यतस्ततोऽवश्यम्। करणीयमशेषाणां परिहरणमनन्तकायानाम्॥ __ (पुरु. 4/126/162) म चूंकि एक साधारण शरीर को- कन्दमूल आदि को भी घात करने की इच्छा रखने 卐 वाला पुरुष अनन्तजीवों को मारता है, इसलिए उन सभी अनन्तकाय वाले पदार्थों (के म 卐 सेवन)का पूर्ण त्याग अवश्य करना चाहिये। LELELELELELELELELELELELELELELELELELELELELELELELELELELELELELELE [जैन संस्कृति खण्ड/818
SR No.016129
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages602
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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