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कृतमात्मार्थं मुनये ददाति भक्तमिति भावितस्त्यागः। अरतिविषादविमुक्तः शिथिलितलोभो भवत्यहिंसैव॥
(पुरु. 4/138/174) __ 'अपने लिये बनाया हुआ भोजन मुनि के लिये देता हूं'-इस प्रकार भावपूर्वक, अप्रीति और खिन्नता से रहित तथा लोभ को निष्क्रिय करने वाले श्रावक का दान अहिंसा卐 स्वरूप ही होता है।
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{780) दानं चतुर्विधाऽऽहारपात्राऽच्छादनसद्मनाम्। अतिथिभ्योऽतिथिसंविभागव्रतमुदीरितम् ।।
____ (है. योग. 3/87) चार प्रकार का आहार, वस्त्र, पात्र, मकान आदि कल्पनीय वस्तुएं साधु-साध्वियों 卐 को दान देना, 'अतिथि संविभाग' नामक चौथा शिक्षाव्रत कहा गया है।
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{781) स संयमस्य वृद्ध्यर्थमततीत्यतिथिः स्मृतः। प्रदानं संविभागोऽस्मै यथाशुद्धियथोदितम्॥ भिक्षौषधोपकरणप्रतिश्रयविभेदतः । संविभागोऽतिथिभ्यस्तु चतुर्विध उदाहृतः॥
(ह. पु. 58/158-159) जो संयम की वृद्धि के लिए निरन्तर भ्रमण करता रहता है, वह अतिथि कहलाता है है। उसे शुद्धिपूर्वक आगमोक्त विधि से आहार आदि देना अतिथिसंविभाग व्रत है। भिक्षा, औषध, उपकरण और आवास के भेद से अतिथि-संविभाग चार प्रकार का कहा गया है।
{782) विधिना दातृगुणवता द्रव्यविशेषस्य जातरूपाय । स्वपरानुग्रहहेतोः कर्त्तव्योऽवश्यमतिथये भागः॥
___ (पुरु.4/131/167) दातार के गुणों से युक्त गृहस्थ को चाहिए कि वह सहजरूपधारी अतिथि के निमित्त से, अपने और पर के उपकार के लिये, विशेष द्रव्य-दान-योग्य वस्तु का विधिपूर्वक भाग ॐ अवश्य ही करे।
अहिंसा-विश्वकोश।323]