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(772) सामयिके सारम्भाः परिग्रहा नैव सन्ति सर्वेऽपि। चेलोपसृष्टमुनिरिव, गृही तदा याति यतिभावम्॥
(रत्नक. श्रा. 102) वीतराग मुनि के यद्यपि तिलतुषमात्र (तिल या तुष के बराबर भी) परिग्रह नहीं * होता, किन्तु उपसर्ग आ जाए और कोई उन पर वस्त्र डाल दे, तो उस समय जैसा वह मुनि । दिखता है, उसी प्रकार सामयिककर्ता भी सामायिक के समय में अन्तरङ्ग परिग्रहरहित हो
जाता है, इसलिए वह उपर्युक्त (उपसर्गयुक्त सवस्त्र) मुनि के समान मालूम होता है। 卐 (अर्थात् यदि वह वस्त्र का त्याग और कर दे तो उतने समय के लिए ठीक वीतराग मुनि के 卐
समान हो जावे।)
O अहिंसा व्रत की पूर्णताः प्रोषधोपवास शिक्षाव्रत से
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(773) सामायिकसंस्कारं प्रतिदिनमारोपितं स्थिरीकर्तुम्। पक्षार्द्धयोर्द्वयोरपि कर्तव्योऽवश्यमुपवासः॥
. (पुरु. 4/115/151) ___ प्रतिदिन अंगीकार किये हये सामायिक रूप संस्कार को स्थिर करने के लिए, दोनों है पक्षों के अर्धभाग में अर्थात् अष्टमी और चतुर्दशी के दिन अवश्य ही उपवास करना चाहिये।
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पञ्चानां पापानामलंक्रियारम्भगन्धपुष्पाणाम्। स्नानाञ्जननस्यानामुपवासे परिहतिं कुर्यात् ॥
(रत्नक. श्रा. 107) उपवास के दिन हिंसादि पांचों पाप, श्रृंगार, व्यापारादि आरम्भ, तेल, इत्र, माला, स्नान, अंजन और सूंघनी आदि के सेवन का त्याग कर देना चाहिए, क्योंकि विषयानुराग ॐ का घटना ही वास्तविक उपवास है।)
अहिंसा-विश्वकोश/321]