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SHEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEENA FO अनिवार्य अल्प हिंसा-दोष के निवारकः गैत्री, करुणा आदि भाव
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स्यादारेका च षट्कर्मजीविनां गृहमेधिनाम् । हिंसादोषोऽनुसंगी स्याज्जैनानां च द्विजन्मनाम्॥ इत्यत्र ब्रूमहे सत्यमल्पसावद्यसंगतिः। तत्रास्त्येव तथाप्येषां स्याच्छुद्धिः शास्त्रदर्शिता ॥ अपि चैषां विशुद्ध्यङ्गं पक्षश्चर्या च साधनम्। इति त्रितयमस्त्येव तदिदानी विवृण्महे ॥ तत्र पक्षो हि जैनानां कृत्स्नहिंसाविवर्जनम्। मैत्रीप्रमोदकारुण्यमाध्यस्थ्यैरुपबृंहितम् ॥ चर्या तु देवतार्थं वा मन्त्रसिद्ध्यर्थमेव वा। औषधाहारक्लृप्त्यै वा न हिंस्यामीति चेष्टितम् ॥ तत्राकामकृते शुद्धिः प्रायश्चित्तैर्विधीयते।
___(आ. पु. 39/143-148) ___ अब यहां यह शंका हो सकती है कि जो असि, मषी आदि छह कर्मों से आजीविका ॥ करने वाले जैन द्विज अथवा गृहस्थ हैं उनके भी हिंसा का दोष लग सकता है, इस विषय में
हम यह कहते हैं कि आपने जो कहा है वह ठीक है। आजीविका के लिए छह कर्म करने 卐वाले जैन गृहस्थों के थोड़ी-सी हिंसा की संगति अवश्य होती है परन्तु शास्त्रों में उन दोषों
की शुद्धि भी तो दिखलायी गई है। उनकी विशुद्धि के अंग तीन हैं- पक्ष, चर्या और साधन।
अब मैं यहां इन्हीं तीन का वर्णन करता हूं। उन तीनों में से मैत्री, प्रमोद, कारुण्य और के 卐 माध्यस्थ्य-भाव से वृद्धि को प्राप्त हुआ समस्त हिंसा का त्याग करना जैनियों का पक्ष
कहलाता है। किसी देवता के लिए, किसी मन्त्र की सिद्धि के लिए अथवा किसी औषध या ।
भोजन बनवाने के लिए मैं किसी जीव की हिंसा नहीं करूंगा- ऐसी प्रतिज्ञा करना 'चर्या' फ़ कहलाती है। इस प्रतिज्ञा में यदि कभी इच्छा न रहते हुए प्रमाद से दोष लग जावे तो प्रायश्चित्त
से उनकी शुद्धि की जाती है। अतः मैत्री, प्रमोद, कारुण्य आदि साधनों से हिंसा-दोष की शुद्धि की जा सकती है।
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[जैन संस्कृति खण्ड/298