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{486) अत्थस्स जीवियस्स य जिब्भोवत्थाण कारणं जीवो। मरदि य मारावेदि य अणंतसो सव्वकालं तु॥
(मूला. 10/989) यह जीव धन, जीवन, रसना-इन्द्रिय और कामेन्द्रिय के निमित्त हमेशा अनन्त बार ॥ * स्वयं मरता है और अन्यों को भी मारता है।
{487) आतुरा परितावेंति।
(आचा.1/1/6/49)
विषयातुर मनुष्य ही दूसरे प्राणियों को परिताप देते हैं।
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{488) जे गुणे से मूलट्ठाणे, जे मूलट्ठाणे से गुणे।
इति से गुणट्ठी महत्त परितावेणं वसे पमत्ते । तं जहा-माता मे, पिता मे, भाया । मे, भगिणी मे, भज्जा मे, पुत्ता मे, धूया मे, सुण्हा मे, सहि-सयण-संगंथ-संथुता मे, # विवित्तोव-गरण-परियट्टण-भोयण-अच्छायणं मे। । इच्चत्थं गढिए. लोए वसे पमत्ते। अहो य राओ य परितप्पमाणे कालाकालसमुट्ठायी संजोगगट्ठी अट्ठालोभी आलुपे सहसक्कारे विणिविट्ठचित्ते एत्थ सत्थे पुणो पुणो।
(आचा. 1/2/1 सू. 63) जो गुण (इन्द्रिय-विषय) है, वह (कषायरूप संसार का) मूल स्थान है। जो मूल म स्थान है, वह गुण है। 卐 इस प्रकार (आगे कथ्यमान) विषयार्थी पुरुष, महान् परिताप से प्रमत्त होकर, 卐
जीवन बिताता है। वह इस प्रकार मानता है-"मेरी माता है, मेरा पिता है, मेरा भाई है, मेरी बहन है, मेरी पत्नी है, मेरा पुत्र है, मेरी पुत्री है, मेरी पुत्र-वधू है, मेरे सखा-स्वजनम सम्बन्धी-सहवासी हैं, मेरे विविध प्रचुर उपकरण (अश्व, रथ, आसन आदि), परिवर्तन 卐 (देने-लेने की सामग्री), भोजन तथा वस्त्र हैं।"
इस प्रकार- मेरेपन (ममत्व) में आसक्त हुआ पुरुष, प्रमत्त होकर उनके साथ निवास करता है। वह प्रमत्त तथा आसक्त पुरुष रात-दिन परितप्त/चिन्ता एवं तृष्णा से आकुल कॉFEEEEEEEEEEEFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFF
अहिंसा-विश्वकोश/211]