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मिथ्यादृष्टिभिराम्नातो, हिंसाद्यैः कलुषीकृतः। स धर्म इति वित्तोऽपि, भवभ्रमणकारणम्॥
(है. योग.2/13) मिथ्यादृष्टियों द्वारा प्रतिपादित तथा हिंसा आदि दोषों से दूषित धर्म यद्यपि संसार में धर्म के रूप में प्रसिद्ध हो भी जाए तो भी वह संसार-परिभ्रमण का कारण है।
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{608) विश्वस्तो मुग्धधीर्लोकः पात्यते नरकावनौ। अहो नृशंसैर्लोभान्धैहिँसाशास्त्रोपदेशकैः॥
( है. योग. 2/32) पु अहो! निर्दय और लोभान्ध हिंसाशास्त्र के उपदेशक इन बेचारे मुग्ध बुद्धि वाले भोले-भाले विश्वासी लोगों को वाग्जाल में फंसा कर या बहका कर नरक की कठोर भूमि म में डाल देते हैं।
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___(609) सरागोऽपि हि देवश्चेत्, गुरुरब्रह्मचार्यपि। कृपाहीनोऽपि धर्म: स्यात्, कष्टं नष्टं ह हा! जगत् ॥
(है. योग.2/14) देवाधिदेव यदि सरागी हो, धर्मगुरु अब्रह्मचारी हो और दयारहित धर्म को अगर धर्म कहा जाय तो, बड़ा अफसोस है! इनसे ही तो संसार की लुटिया डूबी है।
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{610) शमशीलदयामूलं हित्वा धर्म जगद्धितम्। अहो हिंसाऽपि धर्माय जगदे मन्दबुद्धिभिः॥
(है. योग. 2/40) जिसकी जड़ में शम, शील और दया है, ऐसे जगत्कल्याणकारी धर्म को छोड़ कर मंदबुद्धि लोगों ने हिंसा को भी धर्म की कारणभूत बता दिया है, यह बड़े खेद की बात है।
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[जैन संस्कृति खण्ड/260