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FESTEETHERE
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रसजानां च बहूनां जीवानां योनिरिष्यते मद्यम्। मद्यं भजतां तेषां हिंसा संजायतेऽवश्यम्॥
__ (पुरु. 4/27/63) मदिरा को रस से उत्पन्न हुए बहुत जीवों का उत्पत्ति-स्थान माना जाता है। इसलिये जो मदिरापान करता है, वह उन जीवों की हिंसा का दोषी अवश्य ही होता है।
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626) यदेकबिन्दोः प्रचरन्ति जीवाश्चेत्तत् त्रिलोकीमपि पूरयन्ति । यद्विक्लवाश्चमममुं च लोकं यस्यन्ति तत्कश्यमवश्यमस्येत्॥
(सा. ध. 2/4) जिस मद्य की एक बूंद से उसमें पैदा होने वाले जन्तु यदि बाहर फैलें तो समस्त संसार उनसे भर जाए। जिस मद्य को पीकर उन्मत्त हुए प्राणी अपने इस जन्म और दूसरे जन्म को दुःखमय बना लेते हैं, उस मद्य को अवश्य छोड़ना चाहिए।
{627) पीते यत्र रसाङ्गजीवनिवहाः क्षिप्रं प्रियन्तेऽखिलाः, कामक्रोधभयभ्रमप्रभृतयः सावद्यमुद्यन्ति च। तन्मद्यं व्रतयन्न धूर्तिलपरास्कन्दीव यात्यापदम्, तत्पायी पुनरेकपादिव दुराचारं चरन्मज्जति ॥
(सा. ध. 2/5) जिस मद्य के पीते ही मद्य के रस से पैदा होने वाले तथा मद्य में रस पैदा करने वाले जीवों के समूह तत्काल मर जाते हैं तथा पाप और निन्दा के साथ काम, क्रोध, भय, भ्रम 卐 प्रमुख दोष उत्पन्न होते हैं, उस मद्य (के त्याग) का व्रत लेने वाला व्यक्ति धूर्तिल नामक चोर
की तरह विपत्ति में नहीं पड़ता। उस मद्य को पीने वाला मनुष्य एकपाद् नाम के संन्यासी की E तरह दुराचार करता हुआ दुर्गति के दुःख में डूबता है। जी [विशेषार्थ- मद्यपान से मनुष्य का मन आपे में नहीं रहता। वह मदहोश होकर धर्म को भूल जाता है। धर्म
को भूल जाने पर पाप करते हुए संकोच नहीं होता। इसके साथ ही मद्य में जीवों की उत्पत्ति अवश्य होती है, उनके
बिना मद्य तैयार नहीं होता। मद्यपान से वे सब मर जाते हैं। इस प्रकार, हिंसक वृत्तियों का संवर्धन होता है और ॐ मद्यपायी व्यक्ति हिंसक कार्य में लिप्त होता है। ]
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