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671) विरतिः स्थूलवधादेर्मनोवचोऽङ्गकृतकारितानुमतैः। क्वचिदपरेऽप्यननुमतैः पञ्चाहिंसाद्यणुव्रतानि स्युः॥
(सा. ध. 4/5) गृहत्यागी श्रावक में मन, वचन, काय और उनमें से प्रत्येक के कृत, कारित, अनुमोदना, इस प्रकार नौ भंगों के द्वारा स्थूल हिंसा आदि का त्याग पांच अहिंसा आदि अणुव्रत होते हैं। घर में रहने वाले श्रावक में अनुमोदना को छोड़ कर शेष छह भंगों के द्वारा स्थूल हिंसा आदि का त्यागरूप पांच अहिंसा आदि अणुव्रत होते हैं।
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{672} पाणवधमुसावादादत्तादाणपरदारगमणेहिं । अपरिमिदिच्छादो वि अ अणुव्वयाई विरमणाई॥
(भग. आ. 2074) _ हिंसा, असत्य, बिना दी हुई वस्तु का ग्रहण, पर-स्त्रीगमन और इच्छा का अपरिमाणॐ इनसे विरतिरूप ही पांच अणुव्रत हैं।
{673)
इत्यनारम्भजां जयाद् हिंसामारम्भजां प्रति। व्यर्थस्थावरहिंसावद्यतनां सावहेद् गृही ॥
___ (सा. ध. 4/10) गृहत्यागी श्रावक के लिए बतलाये गए विधि के अनुसार ही घर में रहने वाले श्रावक को उठते-बैठते आदि में होने वाली हिंसा को छोड़ना चाहिए। बिना प्रयोजन के + एकेन्द्रियघात की तरह आरम्भ में होने वाली हिंसा के प्रति श्रावक सावधानता बरते।
{674) गृहवासो विनारम्भान्न चारम्भो विना वधात्। त्याज्य: स यत्नात्तन्मुख्यो दुस्त्यजस्त्वानुषङ्गिकः॥
__ (सा. ध. 4/12) ____ गृहस्थाश्रम आरम्भ के बिना संभव नहीं है और आरम्भ हिंसा के बिना नहीं होता। इसलिए जो मुख्य संकल्पी हिंसा है, उसे सावधानतापूर्वक छोड़ना चाहिए। आनुषंगिक # (जान-बूझकर नहीं की जाने वाली) हिंसा का छोड़ना तो अशक्य है। SSEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEER
अहिंसा-विश्वकोश/279)
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