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O अहिंसक चर्याः श्रावक-जीवन का अंग
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{705) यद्यत्स्वस्यानिष्टं तत्तद्वाञ्चित्तकर्मभिः कार्यम्। स्वप्नेऽपि नो परेषामिति धर्मस्याग्रिमं लिङ्गम्॥
(ज्ञा. 2/168/221) (अहिंसा) धर्म का मुख्य (प्रधान) चिह्न यह है कि, जो जो क्रियायें अपने को 卐 अनिष्ट (बुरी) लगती हों, उन-उन को अन्य के लिए मन-वचन-काय से स्वप्न में भी नहीं
करना चाहिए।
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(706) परिसुद्धजलग्गहणं दारुय-धन्नाइयाण तह चेव। गहियाण वि परिभोगो विहीइ तसरक्खणट्ठाए॥
(श्रा.प्र. 259) त्रस जीवों की रक्षा के लिए निर्मल जल और विशुद्ध लकड़ी एवं धान्य आदि का भी ग्रहण करना चाहिए। इसके अतिरिक्त ग्रहण किए हुए पदार्थों का उपभोग भी विधिपूर्वक करना चाहिए।
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{707} न्यायसम्पन्नविभवः शिष्टाचार-प्रशंसकः। कुलशीलसमैः सार्धं कृतोद्वाहोऽन्यगोत्रजैः॥ अवर्णवादी न क्वाऽपि राजादिषु विशेषतः। अनतिव्यक्तगुप्ते च स्थाने सुप्रातिवेश्मिके॥ अनेकनिर्गमद्वारविवर्जितनिकेतनः ॥ कृतसंगः सदाचारैर्माता-पित्रोश्च पूजकः। त्यजन्नुपप्लुतं स्थानमप्रवृत्तश्च गर्हिते ॥ व्ययमायोचितं कुर्वन् वेषं वित्तानुसारतः। अष्टभिर्धीगुणैर्युक्तः शृण्वानो धर्ममन्वहम्॥ अजीर्णे भोजनत्यागी काले भोक्ता च सात्म्यतः। अन्योन्याऽप्रतिबन्धेन त्रिवर्गमपि साधयन्॥
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अहिंसा-विश्वकोश/2951