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जो वावरेइ सदओ अप्पाण-समं परं पि मण्णंतो। जिंदण-गरहण-जुत्तो परिहरमाणो महारंभे॥ तस-घादं जो ण करदि मण-वय काएहि णेव कारयदि। कुव्वं पि ण इच्छदि पढम-वयं जायदे तस्स॥
(स्वा. कार्ति. 12/331-332) ___ जो श्रावक दयापूर्वक व्यापार करता है, अपने ही समान दूसरों को भी मानता है, म अपनी निन्दा और गर्दा करता हुआ महाआरम्भ को नहीं करता, जो मन वचन और काय से 卐त्रसजीवों का घात न स्वयं करता है, न दूसरों से कराता है और कोई स्वयं करता हो तो उसे 卐
अच्छा नहीं मानता, उस श्रावक के प्रथम अहिंसाणुव्रत होता है।
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धर्ममहिंसारूपं संशृण्वन्तोऽपि ये परित्यक्तुम्। स्थावरहिंसामसहा:त्रसहिंसां तेऽपि मुञ्चन्तु ॥
(पुरु. 4/40/76) ___ जो जीव अहिंसारूप धर्म को अच्छी तरह से सुन कर भी स्थावर जीवों की हिंसा । छोड़ने को असमर्थ हैं, वे जीव भी त्रस जीवों की तो हिंसा त्याग ही दें।
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निरर्थकां न कुर्वीत जीवेषु स्थावरेष्वपि। हिंसामहिंसाधर्मज्ञः काङ्क्षन् मोक्षमुपासकः॥
(है. योग.2/21) अहिंसा धर्म को जानने वाला मुमुक्षु श्रमणोपासक स्थावर जीवों की भी निरर्थक है ॐ हिंसा न करे।
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स्तौकेकैन्द्रियघाताद् गृहिणां सम्पन्नयोग्यविषयाणाम्। शेषस्थावरमारणविरमणमपि भवति करणीयम्॥
__(पुरु. 4/41/77) ___ इन्द्रियों के विषयों को न्यायपूर्वक सेवन करने वाले गृहस्थों को अल्प एकेन्द्रिय घात ज के अतिरिक्त शेष स्थावर जीवों के मारने का त्याग भी करना चाहिए। EFFEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE*
अहिंसा-विश्वकोश/2811