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ततो मनसा वचसा कायेन च पृथक्करणकारणानु मननै- ' निवृत्तिरहिंसासूनृतास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहाख्यानि पञ्चाणुव्रतानि क्वचिद् गृहवासनिवृत्ते ।
श्रावके अननुमतैऽरनुमतिविवर्जितैर्मनस्करणादिभिः षड्भिः स्थूलहिंसादिनिवृत्त्या 卐 संपद्यन्ते तानि मध्यमवृत्त्याऽणुव्रतानि। तस्यापत्यादिभिः हिंसादिकरणे तत्कारणे वा
अनुमतेरशक्यप्रतिषेधत्वात् । स एव द्विविधत्रिविधाख्यः स्थूलहिंसादिविरतिभङ्गो बहुविषयत्वाच्छ्रेयान्।
(सा. ध. 4/5 स्वोपज्ञ टीका) विशेषार्थ:- जैन धर्म में जीवों के दो भेद किए गए हैं- त्रस और स्थावर । त्रस जीव स्थूल होने से चलते-फिरते दृष्टिगोचर होते हैं उनकी हिंसा को स्थूल हिंसा कहते हैं और 卐 उसके त्याग को अहिंसाणुव्रत कहते हैं। स्नेह और मोह आदि के वशीभूत होकर ऐसा झूठ
बोलना जिससे कोई घर उजड़ जाए या गांव ही नष्ट हो जाए, उसे स्थूल असत्य कहते हैं और
उसका त्याग दूसरा सत्याणुव्रत है। जिससे दूसरे को कष्ट हो और राजदण्ड का भय हो- ऐसी ॐ दूसरे की वस्तु को लेना स्थूल चोरी है और उसका त्याग तीसरा अचौर्याणुव्रत है। परस्त्री
और वेश्या से सम्भोग न करना चतुर्थ ब्रह्मचर्याणुव्रत है। धन, धान्य, जमीन जायदाद आदि ।
का इच्छानुसार परिमाण करना पांचवां परिग्रह-परिमाण अणुव्रत है। ये स्थूल हिंसा आदि 卐 मन से, वचन से, काय से तथा कृत कारित ओर अनुमोदना से किए जाते हैं। अत: जो है
श्रावक गृहवास से निवृत्त हो गया है वह मन, वचन, काय, कृत, कारित, अनुमोदना से पांचों
स्थूल हिंसा आदि का त्याग करता है। ये उत्कृष्ट अणुव्रती कहे जाते हैं। किन्तु जो श्रावक घर 卐 में रहता है वह अनुमोदना सम्बन्धी तीन विकल्पों को छोड़कर शेष छह विकल्पों से ही स्थूल 卐 * हिंसा आदि का त्याग करता है। उन्हें मध्यम अणुव्रती कहते हैं क्योंकि घर में रहने वाले
श्रावक के पुत्र-पौत्रादि जो हिंसा आदि करते या कराते हैं उनकी अनुमति से वह नहीं बच 卐 सकता, उनमें उसकी अनुमति होती है। इस प्रकार स्थूल हिंसा आदि की निवृत्ति के अनेक ॥ ॐ प्रकार हैं क्योंकि शक्ति के अनुसार धारण किया गया व्रत यदि सुखपूर्वक पाला जाता है तो CF वह कल्याणकारी होता है।
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[जैन संस्कृति खण्ड/282