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गगनगमगध9999992
थावरकायमणुगयं वहमाणस्स धुवो भंगो॥ तसभूयपाणविरई तब्भावंमि वि न होइ भंगाय। खीरविगइपच्चक्खातदहियपरिभोगकिरिय व्व॥ तम्हा विसेसिऊणं इय विरई इत्थ होइ कायव्वा।
(श्रा.प्र. 119-123) __ कितने ही वादी नागरिक-वध की निवृत्ति क उदाहरण से उस त्रस प्राणियों के घात ॥ की विरति को इसलिए नहीं स्वीकार करते हैं कि उससे, त्रस अवस्था छोड़ कर स्थावरों में उत्पन्न हुए उन त्रस जीवों के घात की सम्भावना से, स्वीकृत (अणुव्रती का) व्रत भंग हो सकता है।
[नागरिकवधनिवृत्ति न्याय इस प्रकार है- यहां किसी के द्वारा नागरिक-वध का प्रत्याख्यान करने पर-जब वह ऐसे व्यक्ति का वध करता है, जो नगर में कभी रहा हो, किंतु बाद में नगर से निकल कहीं और रह रहा है। उस
समय क्या उसके वध से वध-कर्ता का 'वध-विरति का व्रत' भंग नहीं हो जाता है? वह भंग होता ही है। अब इस म दृष्टान्त की योजना दाष्र्टान्त के साथ की जाती है:-]
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इस प्रकार सामान्य रूप से त्रस-प्राणघातविरति को स्वीकार करके उससे-द्वीन्द्रियादिरूप 卐स पर्याय से-स्थावरकाय को प्राप्त हुए उस त्रस का घात करते हुए श्रावक का वह व्रत 卐 निश्चित ही भंग होता है।
(उक्त शंका का समाधान)
त्रसभूत- त्रस पर्याय से अधिष्ठित प्राणियों के वध का व्रत, त्रस पर्याय से स्थावर 卐 को प्राप्त उन प्राणियों का वध करने पर भी, नष्ट नहीं होता है। जैसे दूध रूप विकार
(गोरस) का प्रत्याख्यान करने पर दहीरूप विकार का उपभोग करना व्रत-भंग का कारण नहीं होता है।
इसलिए-उक्त दोष को दूर करने के लिए विशेषता के साथ-'भूत' शब्द के उपादानपूर्वक- त्रसभूत प्राणियों के घात का यहां व्रत करना चाहिए, न कि सामान्य से त्रस । प्राणियों के घात का। (इस प्रकार यहां तक वादी ने अपने पक्ष को स्थापित किया है।)
[वादी का अभिप्राय यह है कि यदि सामान्य से त्रस प्राणियों के घात का व्रत कराया जाता है, तो वैसी अवस्था में जो द्वीद्रियादि त्रस जीव मर कर स्थावरों में उत्पन्न हुए हैं, उनका आरम्भ में प्रवृत्त हुआ श्रावक घात कर सकता है। इस प्रकार स्थावर अवस्था को प्राप्त हुए उन त्रस जीवों का घात होने पर श्रावक का वह व्रत भंग हो जाता 卐 ) ) )) )
) ) ) ) [जैन संस्कृति खण्ड/290