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________________ E (678) जो वावरेइ सदओ अप्पाण-समं परं पि मण्णंतो। जिंदण-गरहण-जुत्तो परिहरमाणो महारंभे॥ तस-घादं जो ण करदि मण-वय काएहि णेव कारयदि। कुव्वं पि ण इच्छदि पढम-वयं जायदे तस्स॥ (स्वा. कार्ति. 12/331-332) ___ जो श्रावक दयापूर्वक व्यापार करता है, अपने ही समान दूसरों को भी मानता है, म अपनी निन्दा और गर्दा करता हुआ महाआरम्भ को नहीं करता, जो मन वचन और काय से 卐त्रसजीवों का घात न स्वयं करता है, न दूसरों से कराता है और कोई स्वयं करता हो तो उसे 卐 अच्छा नहीं मानता, उस श्रावक के प्रथम अहिंसाणुव्रत होता है। 16791 听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听明明明明明明明恐 धर्ममहिंसारूपं संशृण्वन्तोऽपि ये परित्यक्तुम्। स्थावरहिंसामसहा:त्रसहिंसां तेऽपि मुञ्चन्तु ॥ (पुरु. 4/40/76) ___ जो जीव अहिंसारूप धर्म को अच्छी तरह से सुन कर भी स्थावर जीवों की हिंसा । छोड़ने को असमर्थ हैं, वे जीव भी त्रस जीवों की तो हिंसा त्याग ही दें। {6800 निरर्थकां न कुर्वीत जीवेषु स्थावरेष्वपि। हिंसामहिंसाधर्मज्ञः काङ्क्षन् मोक्षमुपासकः॥ (है. योग.2/21) अहिंसा धर्म को जानने वाला मुमुक्षु श्रमणोपासक स्थावर जीवों की भी निरर्थक है ॐ हिंसा न करे। ___{681) स्तौकेकैन्द्रियघाताद् गृहिणां सम्पन्नयोग्यविषयाणाम्। शेषस्थावरमारणविरमणमपि भवति करणीयम्॥ __(पुरु. 4/41/77) ___ इन्द्रियों के विषयों को न्यायपूर्वक सेवन करने वाले गृहस्थों को अल्प एकेन्द्रिय घात ज के अतिरिक्त शेष स्थावर जीवों के मारने का त्याग भी करना चाहिए। EFFEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE* अहिंसा-विश्वकोश/2811
SR No.016129
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages602
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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