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________________ 卐 (अहिंसा अणुव्रत) {675) त्रसस्थावरकायेषु त्रसकायापरोपणात् । विरतिः प्रथमं प्रोक्तमहिंसाख्यमणुव्रतम्॥ (ह. पु. 58/138) त्रस और स्थावर के भेद से जीव दो प्रकार के हैं। इनमें से त्रसकायिक जीवों के विघात से विरत होना पहला अहिंसाणुव्रत कहा गया है। {676) सङ्कल्पात्कृतकारित-मननाद्योगत्रयस्य चरसत्त्वान् । न हिनस्ति यत्तदाहुः, स्थूलवधाद्विरमणं निपुणाः॥ ___(रत्नक. श्रा. 53) मन, वचन और काय के कृत, कारित और अनुमोदना रूप नौ सकंल्पों से संकल्पपूर्वक त्रस जीवों का घात नहीं करना ‘अहिंसाणुव्रत' कहलाता है। {677 सन्तोषपोषतो यः स्यादल्पारम्भपरिग्रहः। भावशुद्ध्येकसर्गोऽसावहिंसाणुव्रतं भजेत्॥ (सा. ध. 4/14) जो सन्तोष से पुष्ट होने के कारण थोड़ा आरम्भ और थोड़ा परिग्रह वाला है तथा जो म 卐 मन की शुद्धि की ओर ध्यान रखता है, वह अहिंसाणुव्रत का पालन कर सकता है। [विशेषार्थ:- आरम्भ और परिग्रह हिंसा की खान है। इसकी बहुतायत में हिंसा की भी बहुतायत होती CE और इनके कम होने से हिंसा में भी कमी होती है। किन्तु वह अल्प आरम्भ और अल्पपरिग्रह सन्तोषजन्य होने के LF चाहिएं, अभावजन्य नहीं। गरीबी से पीड़ित जन ऐसे भी हैं जिनके पास न कोई आरम्भ है और न परिग्रह । किन्तु इससे GF वे महान् दुःखी रहते हैं। उनकी बात नहीं है। ऐसे में भी जो सन्तुष्ट रहते हैं या सन्तोष के कारण आरम्भ और परिग्रह GE घटा लेते हैं, वे अहिंसाणुव्रत पालने के योग्य होते हैं। इसके साथ ही मानसिक अशुद्धि का नाम ही भावहिंसा है और जैन धर्म में भावहिंसा का नाम ही हिंसा है। भाव हिंसा से सम्बद्ध होने से द्रव्य हिंसा को भी हिंसा कहा जाता है। अत: अहिंसाणुव्रत का पालन करना हो तो मन की शुद्धि की ओर से सदा सावधान रहना चाहिए।] 明明明明明明明明明% REFEREFERESTER [जैन संस्कृति खण्ड/280
SR No.016129
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages602
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
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