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{638) न विना प्राणिविघातान्मांसस्योत्पत्तिरिष्यते यस्मात् । मांसं भजतस्तस्मात् प्रसरत्यनिवारिता हिंसा॥
(पुरु. 4/29/65) चंकि प्राणियों का घात किये बिना मांस की उत्पत्ति नहीं मानी जा सकती, इसलिये ॥ मांस खाने वाले जीव के अनिवार्य रूप से-अवश्य ही हिंसा फैलती है-लगती है।
(639) यदपि किल भवति मांसं स्वयमेव मृतस्य महिषवृषभादेः। तत्रापि भवति हिंसा तदाश्रितनिगोतनिर्मथनात् ॥
___(पुरु. 4/30/66) यद्यपि यह सत्य है कि अपने आप ही मरने वाले भैंस, बैल इत्यादि का भी मांस होता है, परन्तु वहां भी, अर्थात् उस मांस के खाने में भी, उसके आश्रय से रहने वाले उसी जाति के निगोदिया जीवों के घात से हिंसा होती है।
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हिंस्रः स्वयं मृतस्यापि स्यादश्रन्वा स्पृशन् पलम्।
(सा. ध. 27) स्वयं मरे हुए भी मच्छ, भैंसे आदि के मांस को खाने वाला और छूने वाला भी हिंसक है।
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प्राणिहिंसार्पितं दर्पमर्पयत्तरसं तराम्। रसयित्वा नृशंसः स्वं विवर्तयति संसृतौ ॥
(सा. ध. 2/8) मांस प्राणी को मारने से ही प्राप्त होता है और उसके खाने से अत्यन्त मद होता है। ॐ उसे खा कर क्रूर प्राणी अपने को संसार में भ्रमण कराता है।
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[जैन संस्कृति खण्ड/270
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