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M {634} स्वभावाशुचि दुर्गन्धमन्यापायं दुरास्पदम्। सन्तोऽदन्ति कथं मांसं विपाके दुर्गतिप्रदम्॥
___ (उपासका. 23/279) मांस स्वभाव से ही अपवित्र है, दुर्गन्ध से भरा है, दूसरों की जान ले-लेने पर तैयार होता है, तथा कसाई के घर-जैसे दुःस्थान से प्राप्त होता है। ऐसे मांस को भले आदमी कैसे :खाते हैं?
{635) नाकृत्वा प्राणिनां हिंसां मांसमुत्पद्यते क्वचित् । न च प्राणिवधः स्वय॑स्तस्मान्मांसं विवर्जयेत्॥
(है. योग. 3/22) ___प्राणियों का वध किये बिना मांस कहीं प्राप्त या उत्पन्न नहीं होता और न ही प्राणि卐वध जीवों को अत्यन्त दुःख देने वाला होने के कारण स्वर्ग देने वाला है; अपितु वह नरक ॥ 卐 के दुःख का कारण रूप ही है। ऐसा सोच कर मांस का सर्वथा त्याग करना चाहिए।
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{636) न धर्मो निर्दयस्यास्ति, पलादस्य कुतो दया ।।
__ (है. योग. 3/29) निर्दय व्यक्ति के कोई धर्म नहीं होता, मांस खाने वालों में दया कहां से हो सकती है?
{637} आमास्वपि पक्वास्वपि विपच्यमानासु मांसपेशीषु। सातत्येनोत्पादः तज्जातीनां निगोतानाम्॥ आमां वा पक्वां वा खादति यः स्पृशति वा पिशितपेशीम्। स निहन्ति सततनिचितं पिण्डं बहुजीवकोटीनाम्॥
___ (पुरु. 4/31/67-68) 卐 कच्चे अथवा पके हुये तथा पकते हुए मांस के टुकड़ों में भी उसी जाति के सम्मूर्छन जीवों का निरन्तर उत्पाद होता है। इसलिए, जो पुरुष कच्चे अथवा अग्नि पर पके हुए मांस
के टुकड़ों को खाता है अथवा छूता है, वह पुरुष निरन्तर इकट्ठे हुये अनेक जाति के जीव# समूह के पिण्ड का घात करता है। EFFEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE
अहिंसा-विश्वकोश/269]