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मधुनोऽपि हि माधुर्यमबोधैरह होच्यते। आसाद्यन्ते यदास्वादाच्चिरं नरकवेदनाः॥
(है. योग. 3/40) यह सच है कि मधु व्यवहार से प्रत्यक्ष में मधुर लता है। परन्तु पारमार्थिक दृष्टि से जनरक-सी वेदना का कारण होने से अत्यन्त कड़वा है।खेद है, परमार्थ से अनभिज्ञ अबोधजन
ही परिणाम में कटु मधु को मधुर कहते हैं। मधु का आस्वादन करने वाले को चिरकाल तक नरकसम वेदना भोगनी पड़ती है।
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मधुशकलमपि प्रायो मधुकरहिंसात्मकं भवति लोके। भजति मधु मूढधीको यः स भवति हिंसकोऽत्यन्तम् ॥
__ (पुरु. 4/33/69) इस लोक में शहद की एक बूंद भी बहुधा मक्खियों की हिंसा से उत्पन्न होती है, 卐 इसलिये जो मूढबुद्धि मनुष्य शहद खाता है, वह अत्यन्त-घोर हिंसा करने वाला है।
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(647)
स्वयमेव विगलितं यो गृहणीयाद्वा छलेन मधुगोलात् । तत्रापि भवति हिंसा तदाश्रयप्राणिनां घातात् ॥
(पुरु. 4/34/70) ___ जो कोई मधुछत्ते से, छल से अथवा अपने आप ही टपकते हुये मधु का ग्रहण करता है, वहां भी (भले ही उसने मधुमक्खियों को मारा न हो), उसके आश्रयभूत जीवों के ) घात से हिंसा होती ही है।
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{648} बहु-तस-समण्णिदं जं मजं मंसादि णिदिदं दव्वं । जो ण य सेवदि णियदं सो दंसण-सावओ होदि॥
(स्वा. कार्ति. 12/328) बहुत त्रसजीवों से युक्त मद्य, मांस आदि निन्दनीय वस्तुओं के सेवन का जो नियम ॐ से त्याग करता है, वह दर्शनिक श्रावक है।
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[जैन संस्कृति खण्ड/272