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TO जीव-हिंसा का दोषी : गांससेवी
{628} सद्यः सम्मूर्छितानन्तजन्तुसन्तानदूषितम् । नरकाध्वनि पाथेयं कोऽश्नीयात् पिशितं सुधीः॥
(है. योग. 3/33) जीव का वध करते ही तुरंत उसमें निगोद रूप अनन्त संमूर्छिम जीव उत्पन्न हो 卐 जाते हैं, और उनकी बार-बार उत्पन्न होने की परम्परा चालू ही रहती है। [आगमों में * बताया है- 'कच्चे या पकाये हुए मांस में या पकाते हुए मांस-पेशियों में निगोद के
संमूर्छिम जीवों की निरन्तर उत्पत्ति होती रहती है। इसलिए इतनी जीव-हिंसा से दूषित 卐 मांस नरक के पथ का पाथेय (भाता) है। इस कारण कौन सुबुद्धिशाली व्यक्ति मांस को खा
सकता है?]
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{629) चिखादिषति यो मांसं, प्राणिप्राणापहारतः । उन्मूलयत्यसौ मूलं, दयाख्यं धर्मशाखिनः॥
(है. योग. 3/18) प्राणियों के प्राणों का नाश किए बिना मांस मिलना सम्भव नहीं है। जो पुरुष ऐसा मांस खाना चाहता है, वह धर्मरूपी वृक्ष मूल को ही मानों उखाड़ डालता है।
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अश्नीयन् सदा मांसं, दयां यो हि चिकीर्षति । ज्वलति ज्वलने वल्ली स रोपयितुमिच्छति ॥
(है. योग. 3/19) ___ जो सदा मांस खाता हुआ, दया करना चाहता है, वह जलती हई आग में बेल रोपना 卐 चाहता है। (अर्थात् ऐसे मांसभक्षियों के हृदय में दया का होना कठिन है।)
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अहिंसा-विश्वकोश/2671