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{603 अहो व्यसनविध्वस्तैर्लोकः पाखण्डिभिर्बलात् । नीयते नरकं घोरं हिंसाशास्त्रोपदेशकैः॥
(ज्ञा. 8/15/487) कितना आश्चर्य है कि विषयकषाय से पीड़ित, पाखंडी और हिंसा का उपदेश देने ॐ वाले (यज्ञादिक में पशु होमने तथा देवी आदि के समक्ष बलिदान आदि हिंसाविधान करने
वाले) लोग (हिंसा-समर्थक) शास्त्रों को रच कर जगत् के जीवों को बलपूर्वक भयानक ॐ नरकादिक में ले जाते हैं।
{604) हिंसाप्रधानशास्त्राद्वा राज्याद्वा नयवर्जितात्। तपसो वाऽपमार्गस्थाद्दुष्कलत्राद् ध्रुवं क्षतिः॥
(उ.प्र. 72/88) हिंसाप्रधान शास्त्र से, नीति-रहित राज्य से, मिथ्या मार्ग में स्थित तप तथा दुष्ट कला 卐 (रात्री) से निश्चित ही हानि होती है।
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{605)
आत्मैवोत्क्षिप्य तेनाशु प्रक्षिप्तः श्वभ्रसागरे। स्नेहभ्रमभयेनापि येन हिंसा समर्थिता॥
(ज्ञा. 8/35/507) जिस पुरुष ने किसी की प्रीति से, भ्रम से अथवा किसी के भय से, हिंसा का समर्थन किया (और कहा) कि हिंसा करना बुरा नहीं है, तो ऐसा समझो कि उसने अपनी आत्मा को 卐 उसी समय नरकरूपी समुद्र में डाल दिया।
(606) अधीतैर्वा श्रुतैति: कुशास्त्रैः किं प्रयोजनम्। यैर्मनः क्षिप्यते क्षिप्रं दुरन्ते मोहसागरे ॥
(ज्ञा. 1/28/28) उन शास्त्रों के पढ़ने, सुनने व जानने से क्या प्रयोजन (ला) है, जिनसे जीवों का । 卐 चित्त (मन) दुरन्तर तथा दुर्निवार मोह-समुद्र में पड़ जाता है। REEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE
अहिंसा-विश्वकोश।259]