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कोहो माणो लोहो य जत्थ माया वि तत्थ सण्णिहिदा। कोहमदलोहदोसा सव्वे मायाए ते होंति ॥
___ (भग. आ.1381) __जहां मायाचार है, वहां क्रोध, मान लोभ भी रहते हैं। क्रोध, मान और लोभ से उत्पन्न ॥ * होने वाले सब दोष मायाचारी में होते हैं।
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{530)
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स्वामिगुरुबन्धुवृद्धानबलाबालांश्च जीर्णदीनादीन्। व्यापाद्य विगतशूको लोभार्तो वित्तमादत्ते ॥
(ज्ञा. 18/107/1005) लोभ से पीड़ित मनुष्य धन की प्राप्ति हेतु निर्दय होकर स्वामी, गुरु, बन्धु, वृद्ध, स्त्री बालक, दुर्बल, और दरिद्र (या दुःखी) आदि प्राणियों का भी घात करता है।
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{531) आकरः सर्वदोषाणां गुणग्रसनराक्षसः। कन्दो व्यसनवल्लीनां लोभः सर्वार्थबाधकः॥
(है. योग. 4/18) ___ जैसे लोहा आदि सब धातुओं का उत्पत्तिस्थान खान है,वैसे ही प्राणातिपात आदि 卐समस्त दोषों की खान लोभ है। यह ज्ञानादि गुणों को निगल जाने वाला राक्षस है, व्यसन/
संकट रूपी बेलों का कंद (मूल) है। वस्तुत: लोभ धर्म-अर्थ-काम-मोक्षरूप समस्त अर्थों-पुरुषार्थों में बाधक है।
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{532) सव्वे वि गंथदोसा लोभकसायस्स हुंति णादव्वा। लोभे चेव मेहुणहिंसालियचोजमाचरदि॥
(भग. आ.1387) परिग्रह के जो दोष कहे गये हैं, वे सब दोष लोभकषाय वाले के अथवा लोभ ' नामक कषाय के जानना। लोभ से ही मनुष्य हिंसा, झूठ, चोरी और स्त्री-सेवन करता है। * अतः समस्त पाप- क्रियाओं का प्रथम कारण लोभ है।
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अहिंसा-विश्वकोश/2371
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