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करना, क्षमा धारण करना, हिंसा नहीं करना, तप, दान, शील, ध्यान और वैराग्य- ये उसक
! दयारूप धर्म के चिह्न हैं ।
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दयाया: परिरक्षार्थं गुणाः शेषाः प्रकीर्त्तिताः ॥
धर्मस्य तस्य लिङ्गानि दमः क्षान्तिरहिंस्रता । तपो दानं च शीलं च योगो वैराग्यमेव च॥
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(आ. पु. 5/21-22) 馬
दया की रक्षा के लिए ही उत्तम क्षमा आदि शेष गुण कहे गये हैं । इन्द्रियों का दमन
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(567)
पापवत्स्वपि चात्यन्तं स्वकर्मनिहतेष्वलम् । अनुकम्पैव सत्त्वेषु न्याय्या धर्मोऽयमुत्तमः ॥
(यो. दृ.स. 152 )
मुमुक्षु पुरुषों में सभी प्राणियों के प्रति अनुकम्पा या दया का भाव रहे, यह तो अपेक्षित है ही, साथ ही अपने कुत्सित कर्मों द्वारा निहत - अत्यन्त पीड़ित पापी प्राणियों के प्रति भी वे अनुकम्पाशील हों । यह न्यायोचित - अपेक्षित है ।
(568) नारंभेण दयालुया ।
(बृह. भा. 338 )
हिंसक दयालु नहीं हो सकता ( अर्थात् दया का सद्भाव अहिंसा के साथ है, हिंसा के साथ नहीं ) ।
{569}
सत्यं शौचं क्षमा त्यागः प्रज्ञोत्साहो दया दमः ।
प्रशमो विनयश्चेति गुणाः सत्त्वानुषङ्गिणः ॥
(आ. पु. 15/214)
सत्य, शौच, क्षमा, त्याग, प्रज्ञा, उत्साह, दया, दम, प्रशम और विनय- ये गुण सदा
आत्मा के साथ-साथ रहने वाले गुण हैं (अर्थात् दया, क्षमा आदि शुद्ध आत्मा / निर्विकार
अहिंसक आत्मा में पाए जाते हैं) ।
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[ जैन संस्कृति खण्ड / 248
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