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{582 वेजावच्चणिमित्तं गिलाणगुरुबालबुड्ढसमणाणं। लोगिगजणसंभासा ण णिदिदा वा सुहोवजुदा ॥
(प्रव. 3/53) ग्लान (बीमार), गुरु, बाल अथवा वृद्ध साधुओं की वैयावृत्त्य के निमित्त, शुभ भावों से सहित लौकिकजनों के साथ वार्तालाप करना भी (श्रमण के लिए) निन्दित नहीं है।
{583} अइवड्ढबाल-मूयंध-बहिर-देसंतरीय-रोडाणं। जह जोग्गं दायव्वं करुणादानं ।
(वसु. श्रा. 235) अतिवृद्ध, बालक, गूंगे, अन्धे, बहिरे, परदेशी एवं रोगी-दरिद्र प्राणियों को यथायोग्य करुणा-दान देना चाहिए।
{584) स्वर्गायाव्रतिनोऽपि सामनसः श्रेयस्करी केवला, सर्वप्राणिदया, तया तु रहितः पापस्तपःस्थोऽपि वा॥
(पद्म. पं. 1/11) जो व्यक्ति व्रती नहीं भी हो, किन्तु यदि वह कोमल-हृदय है और सर्व प्राणियों के म 卐 प्रति दया भाव रखता है तो वह दया ही श्रेयस्कारिणी होकर उसके लिए स्वर्ग-प्राप्ति का
कारण बनती है। दया से रहित व्यक्ति तपस्वी भी पापी ही है।
{585} आवत्तीए जहा अप्पं रक्खंति, तहा अण्णोवि आवत्तीए रक्खियव्वो।।
(नि. चू. 5942) 卐 आपत्तिकाल में जैसे अपनी रक्षा की जाती है, उसी प्रकार दूसरों की भी रक्षा करनी चाहिए।
अहिंसा-विश्वकोश 253)