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PO अहिंसा-आराधक के लिए अपेक्षितः अनुकम्पा/करुणा
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धम्मकहाकहणेण य बाहिरजोगेहिं चावि णवजेहिं। धम्मो पहाविदव्वो जीवेसु दयाणुकंपाए॥
___(मूला. 4/264) ___धर्म-कथाओं के कहने से, निर्दोष बाह्य योगों से और जीवों में दया रूपी अनुकम्पा की भावना से धर्म की प्रभावना करनी चाहिए (अर्थात् धर्माराधक के लिए अनुकम्पा की 卐 भावना रखना अपेक्षित है)।
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दठूण पाणिनिवहं भीमे भवसागरंमि दुक्खत्तं । अविसेसओणुकंपं दुहावि सामत्थओ कुणइ॥
(श्रा.प्र. 58) सम्यग्दृष्टि जीव भयानक संसार रूप समुद्र में दुःखों से पीड़ित प्राणी-समूह को देख कर, बिना किसी विशेषता के-समान रूप से- यथाशक्ति द्रव्य व भाव के भेद से दोनों 卐 प्रकार की अनुकम्पा को करता है।
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{572 येषां जिनोपदेशेन कारुण्यामृतपूरिते। चित्ते जीवदया नास्ति तेषां धर्मः कुतो भवेत् ॥
(पद्म. पं. 6/37) जिनोपदेश सुनकर (भी) जिनके मन/अन्त:करण करुणा-अमृत से पूर्ण नहीं होजाते और जो जीव-दया से रहित हैं, उन्हें धर्म कैसे हो सकता है? (अर्थात् वे धर्माराधक 卐 नहीं हो सकते)।
{573) सौजन्यस्य परा कोटिरनसूया दयालुता। गुणपक्षानुरागश्च दौर्जन्यस्य विपर्ययः॥
__ (आ. पु. 1/91) ईर्ष्या नहीं करना, दया करना तथा गुणी जीवों से प्रेम करना- यह सज्जनता की म अन्तिम अवधि (सीमा) है और इसके विपरीत अर्थात् ईर्ष्या करना, निर्दयी होना तथा गुणी ॥ म जीवों से प्रेम नहीं करना- यह दुर्जनता की अन्तिम अवधि है।
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अहिंसा-विश्वकोश/249)