SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 277
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ PO अहिंसा-आराधक के लिए अपेक्षितः अनुकम्पा/करुणा 15701 धम्मकहाकहणेण य बाहिरजोगेहिं चावि णवजेहिं। धम्मो पहाविदव्वो जीवेसु दयाणुकंपाए॥ ___(मूला. 4/264) ___धर्म-कथाओं के कहने से, निर्दोष बाह्य योगों से और जीवों में दया रूपी अनुकम्पा की भावना से धर्म की प्रभावना करनी चाहिए (अर्थात् धर्माराधक के लिए अनुकम्पा की 卐 भावना रखना अपेक्षित है)। {571] 明明明明明明明明明明明明明明明明听听听听听听听听听听听听听 明明明明明明明 दठूण पाणिनिवहं भीमे भवसागरंमि दुक्खत्तं । अविसेसओणुकंपं दुहावि सामत्थओ कुणइ॥ (श्रा.प्र. 58) सम्यग्दृष्टि जीव भयानक संसार रूप समुद्र में दुःखों से पीड़ित प्राणी-समूह को देख कर, बिना किसी विशेषता के-समान रूप से- यथाशक्ति द्रव्य व भाव के भेद से दोनों 卐 प्रकार की अनुकम्पा को करता है। 如听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听听 {572 येषां जिनोपदेशेन कारुण्यामृतपूरिते। चित्ते जीवदया नास्ति तेषां धर्मः कुतो भवेत् ॥ (पद्म. पं. 6/37) जिनोपदेश सुनकर (भी) जिनके मन/अन्त:करण करुणा-अमृत से पूर्ण नहीं होजाते और जो जीव-दया से रहित हैं, उन्हें धर्म कैसे हो सकता है? (अर्थात् वे धर्माराधक 卐 नहीं हो सकते)। {573) सौजन्यस्य परा कोटिरनसूया दयालुता। गुणपक्षानुरागश्च दौर्जन्यस्य विपर्ययः॥ __ (आ. पु. 1/91) ईर्ष्या नहीं करना, दया करना तथा गुणी जीवों से प्रेम करना- यह सज्जनता की म अन्तिम अवधि (सीमा) है और इसके विपरीत अर्थात् ईर्ष्या करना, निर्दयी होना तथा गुणी ॥ म जीवों से प्रेम नहीं करना- यह दुर्जनता की अन्तिम अवधि है। 5955ERESTEFFE अहिंसा-विश्वकोश/249)
SR No.016129
Book TitleAhimsa Vishvakosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSubhadramuni
PublisherUniversity Publication
Publication Year2004
Total Pages602
LanguageHindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy