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{555) न चेदयं मां दुरितैः प्रकम्पयेदहं यतेयं प्रशमाय नाधिकम्। अतोऽतिलाभोऽयमिति प्रतकैयन् विचाररूढा हि भवन्ति निश्चलाः॥
__ (ज्ञा. 18/68/959) (दुर्व्यवहार करने वाले अपराधी के प्रति मुनि का यह चिन्तन होता है-) यदि यह मुझे पापों से कम्पायमान नहीं करता तो- 'यह पूर्वकृत अशुभ कर्म का फल है-' इस विचार 卐 को उत्पन्न नहीं करता । अथवा वध-बन्धनादिरूप दुर्व्यवहारों से मुझे यदि क्षुब्ध नहीं करता卐 तो मैं राग-द्वेष की शान्ति के लिए अधिक प्रयत्न नहीं कर सकता था। यह मेरे लिए बड़ा
भारी लाभ है। इस प्रकार विचार करता हुआ साधु क्रोधादि विकारों को जीतता है। ठीक हैमैं जो मनुष्य विचार-शील-होते हैं वे अपने कार्य में- लक्ष्य में दृढ़ रहा करते हैं।
{556) यदि प्रशमसीमानं भित्त्वा रुष्यामि शत्रवे। उपयोगः कदाऽस्य स्यात्तदा मे ज्ञानचक्षुषः॥ अयत्नेनापि सैवेयं संजाता कर्मनिर्जरा। चित्रोपायैर्ममानेन यत्कृता भत्र्ययातना॥
___ (ज्ञा. 18/65-66/955-56) यदि मैं इस समय शान्ति की मर्यादा को लांघ कर शत्रु के ऊपर क्रोध करता हूं तो फिर मेरे इस ज्ञानरूप नेत्र का उपयोग कब हो सकता है? इसने अनेक प्रकार के उपायों द्वारा 卐 जो मुझे निन्दा के साथ पीड़ा दी है, वही यह अनायास मेरी कर्मनिर्जरा का कारण हुई हैउससे मेरे पूर्वकृत कर्म की निर्जरा ही हुई है; यह इसने मेरा बड़ा उपकार किया है।
[विशेषार्थ- अभिप्राय यह है कि किसी के द्वारा अनिष्ट किये जाने पर साधु यह विचार करता है कि मुझे卐 卐 जो विवेक-बुद्धि प्राप्त है उससे यह विचार करने का यही सुअवसर है कि संसार में मेरा कोई भी शत्रु व मित्र नहीं है। ॐ यदि कोई वास्तविक शत्रु है तो वह मेरा ही पूर्वोपार्जित अशुभ कर्म है और उसे यह वधबन्धनादि के द्वारा मुझसे पृथक्卐 ॐ कर रहा है-उसकी निर्जरा का कारण बन रहा है। अतएव ऐसे उपकारी के ऊपर क्रोध करने से मेरी अज्ञानता ही 卐 प्रमाणित होगी। ऐसा सोच कर वह क्रोध के ऊपर विजय प्राप्त करता है।]
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[जैन संस्कृति खण्ड/244