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{548) हओ न संजले भिक्खू मणं पि न पओसए। तितिक्खं परमं नच्चा भिक्खु-धम्म विचिंतए॥
(उत्त. 2/26)
मारे-पीटे जाने पर भी भिक्षु क्रोध न करे। और तो क्या, दुर्भावना से भी मन को को दूषित न करे। तितिक्षा-क्षमा को साधना का श्रेष्ठ अंग जान कर मुनिधर्म का चिन्तन करे।
{549) क्षमया मृदुभावेन, ऋजुत्वेनाऽप्यनीहया। क्रोधं मानं तथा मायां, लोभं रुन्ध्याद् यथाक्रमम्॥
__ (है. योग. 4/82) संयम-प्राप्ति के लिए प्रयन्न करने वाला योगी क्षमा से क्रोध को, नम्रता से मान को, 卐 ॐ सरलता से माया को और संतोष से लोभ को रोके।
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शमाम्बुभिः क्रोधशिखी निवार्यतां नियम्यतां मानमुदारमार्दवैः।
(ज्ञा. 18/109/1007) हे मुनीन्द्र! शम (क्रोध का निग्रह-क्षमा) रूप जल से क्रोधरूपी अग्नि का निवारण म करना चाहिए, मृदुतापूर्ण व्यवहार से महान् मान का निग्रह करना चाहिए।
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(551)
क्षान्त्या क्रोधो, मृदुत्वेन मानो, मायाऽऽर्जवेन च। लोभश्चानीहया, जेयाः कषायाः इति संग्रहः॥
(है. योग. 4/23) क्रोध को क्षमा से, मान को नम्रता से, माया को सरलता से, और लोभ को नि:स्पृहता-संतोष से जीते। इस प्रकार चारों कषायों पर विजय प्राप्त करना चाहिए; यह 卐 समुच्चयरूप में निचोड़ है।
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EFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFFF [जैन संस्कृति खण्ड/242