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{552) कोहं खमया माणं समद्दवेणजवेण मायं च। संतोसेण य लोहं जयदि खु ए चहुविहकसाए ।
(नि.सा. 115) __क्रोध को क्षमा से, मान को स्वकीय मार्दव धर्म से, माया को आर्जव से और लोभ卐 को संतोष से, इस तरह चारों कषायों को ज्ञानी जीव निश्चय से जीतता है।
Oअहिंसात्मक प्रशस्त चिन्तनः क्षमा भाव का परिणाम
{553} आक्रुष्टोऽहं हतो नैव हतो वा न द्विधाकृतः। मारितो न हतो धर्मो मदीयोऽनेन बन्धुना॥
(ज्ञा. 18/53/943) (यदि कोई अपशब्द कहता है-गाली देता है- तो मुनि उस समय यह विचार करते हैं कि) मेरे लिए इसने अपशब्द ही तो कहे हैं, मुझे मारा तो नहीं । यदि वह कदाचित् मारने भी लग जावे तो वे विचार करते हैं कि इसने मुझे मारा ही तो है, मेरे दो टुकड़े तो नहीं कियेप्राणाघात तो नहीं किया। कदाचित् वह प्राणों के घात में ही प्रवृत्त हो जाता है तो वे सोचते 卐 हैं कि इसने मेरे शरीर का ही घात किया है, मेरे धर्म का तो कुछ घात नहीं किया- उसका 卐 तो उसने संरक्षण ही किया है; (अतएव वह मेरा बन्धु (हितैषी) ही हुआ। फिर भला उसके .
ऊपर क्रोध करना कहां तक उचित है?)
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{554) यदि वाक्कण्टकैर्विद्धो नावलम्बे क्षमामहम्। ममाप्याक्रोशकादस्मात् को विशेषस्तदा भवेत् ॥
(ज्ञा. 18/62/952)卐 (किसी के द्वारा अपशब्द कहे जाने पर मुनि विचार करते हैं कि) यदि वचनरूप 卐 कांटों से विद्ध होकर मैं क्षमा का आश्रय नहीं लेता हूं-क्रोध को प्राप्त होता हूं- तो फिर मुझम 卐 में इस गाली देने वाले की अपेक्षा विशेषता ही क्या रहेगी? कुछ भी नहीं-मैं भी उसी के 卐
समान हो जाऊंगा।
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अहिंसा-विश्वकोश। 243)