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FREEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE E ॐ प्रेरक द्वारा नए पहलू से उठाया गया प्रश्न- सभी अप्रत्याख्यानी जीव सभी प्राणियों के शत्रु हैं, यह कथन 卐 युक्तिसंगत नहीं जंचता; क्योंकि संसार में ऐसे बहुत से प्राणी हैं, जो देश, काल एवं स्वभाव से अत्यन्त दूर, अतिसूक्ष्म ॐ एवं सर्वथा अपरिचित हैं, न तो वे आंखों से देखने में आते हैं, न ही कानों से उनके नाम सुनने में आते हैं, न वे इष्ट 卐 होते हैं, न ज्ञात होते हैं। अत: उनके साथ कोई सम्बन्ध या व्यवहार न रहने से किसी भी प्राणी की चित्तवृत्ति उनके ॐ प्राणियों के प्रति हिंसात्मक कैसी बनी रह सकती है? इस दृष्टि से अप्रत्याख्यानी जीव समस्त प्राणियों का घातक कैसे
माना जा सकता है? इसी प्रकार जो प्राणातिपात से लेकर मिथ्यादर्शन शल्य तक के पापों के विषय में सर्वथा अज्ञात' 卐 हैं, वे उन पापों से कैसे लिप्त हो सकते हैं?
यथार्थ समाधान- दो दृष्टान्तों द्वारा- जो प्राणी जिस प्राणी की हिंसा से निवृत्त नहीं, वह वध्य प्राणी भले ही देश-काल से दूर, सूक्ष्म, अज्ञात एवं अपरिचित हो; तो भी, अप्रत्याख्यानी प्राणी उसका घातक ही कहा जाएगा। " उसकी चित्तवृत्ति उनके प्रति हिंसक ही है। इसी प्रकार जो हिंसादि पापों से विरत नहीं, वह चाहे उन पापों से अज्ञात
हो, फिर भी अविरत कहलाएगा, इसलिए उसके उन सब पापकर्मों का बंध होता रहेगा। ग्रामघातक व्यक्ति ग्राम से दूर म चले गए प्राणियों का भले ही घात न कर पाए, किंतु है वह उनका घातक ही, क्योंकि उसकी इच्छा समग्र ग्राम के घात जE की है। अत: अप्रत्याख्यानी प्राणी ज्ञात-अज्ञात सभी प्राणियों का हिंसक है, समस्त पापों में लिप्त है, भले ही वह 18 पापस्थानों में से एक पाप करता हो।
प्रथम दृष्टान्त- एक संज्ञी प्राणी है, उसने पृथ्वीकाय से अपना कार्य करना निश्चित किया है। शेष सब कायों के आरम्भ का त्याग कर दिया है। यद्यपि वह पृथ्वीकाय में भी देश-काल से दूरवर्ती समग्र पृथ्वीकाय का आरम्भ नहीं करता, एक देशवर्ती अमुक पृथ्वीविशेष का ही आरम्भ करता है, किंतु उसके पृथ्वीकाय के आरम्भ या घात का प्रत्याख्यान न होने से समग्र पृथ्वीकाय की हिंसा (आरम्भ) का पाप लगता है, वह अमुक दूरवर्ती पृथ्वीकाय अनारम्भक या अघातक नहीं, आरम्भक एवं घातक ही कहा जाएगा। इसी प्रकार, जिस संज्ञी जीव ने छहों काया के प्राणियों की हिंसा का प्रत्याख्यान नहीं किया है, वह अमुक काय के जीव की या देश-काल से दूरवर्ती प्राणियों की हिंसा न करता हुआ भी प्रत्याख्यान न होने से षट्कायिक जीवों का हिंसक या घातक ही है। इसी प्रकार 18 पापस्थानों का प्रत्याख्यान न करने पर उसे 18 ही पाप- स्थानों का कर्ता माना जाएगा, भले ही वह उन पापों को मन, वचन व काय से समझ बूझ कर न करता हो।
दूसरा दृष्टान्त- असंज्ञी प्राणियों का है- पृथ्वीकाय से लेकर वनस्पतिकाय तक तथा कोई-कोई त्रसकाय (द्वीन्द्रिय आदि) तक के जीव असंज्ञी भी होते हैं, वे सम्यग्ज्ञान, विशिष्ट चेतना, या द्रव्य मन से रहित होते हैं। ये सुप्त, प्रमत्त या मूर्छित के समान होते हैं। इनमें तर्क, संज्ञा, प्रज्ञा, वस्तु की आलोचना कर पहचान करने, मनन करने, शब्दों का स्पष्ट उच्चारण करने तथा शरीर से स्वयं करने, कराने या अनुमोदन करने की शक्ति नहीं होती, इनमें मन, वचन, काय का विशिष्ट व्यापार नहीं होता। फिर भी ये असंज्ञी प्राणी प्राणि-हिंसा एवं अठारह पापस्थानों का प्रत्याख्यान न होने से दूसरे प्राणियों के घात की योग्यता रखते हैं, दूरवर्ती प्राणियों के प्रति भी हिंसात्मक दुष्ट आशय इनमें रहता है, ये प्राणियों को दुःख, शोक, संताप एवं पीड़ा उत्पन्न करने से विरत नहीं कहे जा सकते। पाप से विरत न होने से ये सतत अठारह ही पापस्थानों में लिप्त या प्रवृत्त कहे जाते हैं।
निष्कर्ष- यह है कि प्राणी चाहे संज्ञी हो या असंज्ञी, जो प्रत्याख्यानी नहीं है, वह चाहे जैसी अवस्था में हो, ॐ वध्य प्राणी चाहे देशकाल से दूर हो, चाहे वह (वधक) प्राणी स्वयं किसी भी स्थिति में मन-वचन-काया से किसी
णी की घात न कर सकता हो, स्वप्न में भी घात की कल्पना न आती हो, सषप्त चेतनाशील हो या मूर्छित हो, ॐ तो भी सब प्राणियों के प्रति दुष्ट आशय होने से तथा अठारह पापस्थानों से निवृत्त न होने से, उसके सतत पापकर्म का 卐 बंध होता रहता है।
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अहिंसा-विश्वकोश/235]