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卐卐卐卐卐卐事事事事事 ● हिंसक वृत्ति का पोषकः संयमहीन/अप्रत्याख्यानी जीवन
(521)
अगचित्ते खलु अयं पुरिसे, से केयणं अरिहइ पूरइत्तए ।
से अण्णवहाए अण्णपरियावाए अण्णपरिग्गहाए जणवयवहाए जणवयपरिवायाए जण - वयपरिग्गहाए ।
(आचा. 1/3/2 सू. 118) वह (असंयमी) पुरुष अनेक चित्त वाला है। वह चलनी को (जल से) भरना $ चाहता है। वह (तृष्णा की पूर्ति के हेतु व्याकुल मनुष्य) दूसरों के वध के लिए, दूसरों के परिताप के लिए, दूसरों के परिग्रह के लिए, तथा जनपद के वध के लिए, जनपद के परिताप के लिए और जनपद के परिग्रह के लिए (प्रवृत्ति करता है ) ।
(522)
आया अपच्चक्खाणी यावि भवति, आया अकिरियाकुसले यावि भवति, आया मिच्छासंठिए यावि भवति, आया एगंतदंडे यावि भवति, आया एगंतबाले यावि भवति, आया एगंतसुत्ते यावि भवति, आया अवियारमण - वयस - काय - वक्के
यावि भवति, आया अप्पडिहय - अपच्चक्खायपावकम्मे यावि भवति, एस खलु भगवता अक्खाते असंजते अविरते अप्पडिहयपच्चक्खायपावकम्मे सकिरिए असंवुड़े एगंतदंडे एगंतबाले एगंतसुत्ते, से बाले अवियारमण-वयस - काय - वक्के सुविणमवि 事 पण परसति, पावे से कम्मे कज्जति ।
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(सू.कृ. 2/4/747)
आत्मा (जीव) अप्रत्याख्यानी (सावद्यकर्मों का त्याग न करने वाला) भी होता है;
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आत्मा अक्रिया कुशल (शुभक्रिया न करने में निपुण) भी होता है; आत्मा मिथ्यात्व (के उदय) में संस्थित भी होता है; आत्मा एकान्त रूप से दूसरे प्राणियों को दंड देने वाला भी होता है; आत्मा एकान्त (सर्वथा) बाल (अज्ञानी) भी होता है; आत्मा एकान्त रूप से सुषुप्त भी होता 卐 馬 है; आत्मा अपने मन, वचन, काया और वाक्य (की प्रवृत्ति) पर विचार न करने वाला 卐 (अविचारी) भी होता है। और आत्मा अपने पापकर्मों का प्रतिहत- घात एवं प्रत्याख्यान नहीं 卐 करता। इस जीव (आत्मा) को भगवान् ने असंयत (संयमहीन), अविरत (हिंसा आदि से
अनिवृत्त), पापकर्म का घात (नाश) और प्रत्याख्यान (त्याग) न किया हुआ, क्रियासहित,
संवर-रहित, प्राणियों को एकान्त (सर्वथा) दंड देने वाला, एकान्तबाल, एकान्तसुप्त कहा है। 馬 मन, वचन, काया और वाक्य (की प्रवृत्ति) के विचार से रहित वह अज्ञानी, चाहे स्वप्न भी न
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देखता हो अर्थात् अत्यन्त अव्यक्त विज्ञान से युक्त हो, तो भी वह हिंसादि पापकर्म करता है। 卐卐 卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐卐
[ जैन संस्कृति खण्ड /228