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(513)
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__ तत्थ खलु भगवता परिण्णा पवेदिता।
इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदण-माणण-पूयणाए, जाई-मरण-मोयणाए दुक्ख- पडिघातहेतुं।
एयावंति सव्वावंति लोगंसि कम्मसमारंभा परिजाणियव्वा भवंति।
जस्सेते लोगंसि कम्मसमारंभा परिण्णाया भवंति से हु मुणी परिण्णायकम्मे 卐त्ति बेमि।
(आचा. 1/1/1/सू.7-9) इस सम्बन्ध में (कर्म-बन्धन के कारणों के विषय में) भगवान ने परिज्ञा-विवेक का उपदेश किया है।
(अनेक मनुष्य इन आठ हेतुओं से कर्म समारंभ-हिंसा करते हैं)1. अपने इस जीवन के लिए, 2. प्रशंसा व यश के लिए, 3. सम्मान की प्राप्ति के लिए, 4. पूजा आदि पाने के लिए, 5. जन्म-सन्तान आदि के जन्म पर, अथवा स्वयं के जन्म निमित्त से, 6. मरण-मृत्यु सम्बन्धी कारणों व प्रसंगों पर, 7. मुक्ति की प्रेरणा या लालसा से, (अथवा जन्म-मरण से मुक्ति पाने की इच्छा से) 8. दु:ख के प्रतीकार हेतु-रोग, आतंक, उपद्रव आदि मिटाने के लिए।
लोक में (जीवन-रक्षा, प्रशंसा/यश की प्राप्ति, दुःख-प्रतीकार आदि हेतुओं से होने 卐 वाले) ये सब कर्मसमारंभ/हिंसा के हेतु जानने योग्य और त्यागने योग्य होते हैं।
लोक में ये जो कर्मसमारंभ/हिंसा के हेतु हैं, इन्हें जो जान लेता है (और त्याग देता म है) वही परिज्ञातकर्मा मुनि होता है। -ऐसा मैं कहता हूं।
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{514) सुप्प-वियण-तालयंट-पेहुण-मुह-करयल-सागपत्त-वत्थमाईएहिं अणिलं * हिंसति।
(प्रश्न. 1/1/सू.16) सूर्प-सूप-धान्यादि फटक कर साफ करने के उपकरणों, व्यजन-पंखा, तालवृन्त- ताड़ के पंखा, मयूरपंख आदि से, मुख से, हथेलियों से, सागवान आदि के पत्ते से तथा वस्त्रखण्ड आदि से वायुकाय के जीवों की हिंसा की जाती है।
FREEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEE [जैन संस्कृति खण्ड/224