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रहता है। काल या अकाल में (समय-बेसमय / हर समय ) प्रयत्नशील रहता है। वह संयोग 卐 का अर्थी होकर, अर्थ का लोभी बन कर लूट-पाट करने वाला (चोर या डाकू) बन जाता 筑 卐
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है । सहसाकारी - दुःसाहसी और बिना विचारे कार्य करने वाला हो जाता है । विविध प्रकार 節
की आशाओं में उसका चित्त फंसा रहता है। वह बार-बार शस्त्र प्रयोग करता है और
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संहारक - आक्रामक बन जाता है।
(489)
जीविते इह जे पमत्ता से हंता छेत्ता भेत्ता लुंपित्ता विलुंपित्ता उद्दवेत्ता उत्तासयित्ता - अकडं करिस्सामि त्ति मण्णमाणे ।
( आचा, 1/2/1 सू. 66 )
जो इस जीवन (विषय, कषाय आदि) के प्रति प्रमत्त है / आसक्त है, वह हनन, छेदन, भेदन, चोरी, ग्रामघात, उपद्रव ( जीव - वध ) और उत्त्रास आदि प्रवृत्तियों में लगा रहता है। (जो आज तक किसी ने नहीं किया, वह) 'अकृत काम मैं करूंगा' इस प्रकार मनोरथ करता रहता है ।
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(490)
कासंकसे खलु अयं पुरिसे, बहुमायी, कडेण मूढे, पुणो तं करेति लोभं, वेरं वड्ढेति अप्पणो । जमिणं परिकहिज्जइ इमस्स चेव पडिबूहणताए । अमरायइ महासड्ढी । अट्ठमेतं तु पेहाए । अपरिण्णाए कंदति ।
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( आचा. 1/2/5 सू. 93 )
( काम - भोग में आसक्त) यह पुरुष सोचता है - मैंने यह कार्य किया, यह कार्य
करूंगा, इस प्रकार की आकुलता के कारण ) वह दूसरों को ठगता है, माया-कपट रचता
卐 ग्रस्त फिर लोभ करता है ( काम - भोग प्राप्त करने को ललचाता है) और (माया एवं
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है, और फिर अपने रचे माया - जाल में स्वयं फंस कर मूढ बन जाता है। वह मूढभाव से
लोभयुक्त आचरण के द्वारा) प्राणियों के साथ अपना वैर बढ़ाता है। जो मैं यह कहता हूं (कि
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पुष्ट बनाने के लिए ही ऐसा करता है। वह काम - भोग में महान् श्रद्धा ( आसक्ति) रखता हुआ
अपने को अमर की भांति समझता है। तू देख, वह आर्त- पीड़ित तथा दुखी है। परिग्रह का त्याग नहीं करने वाला क्रन्दन करता है ( रोता है ) ।
[ जैन संस्कृति खण्ड /212
वह कामी पुरुष माया तथा लोभ का आचरण कर अपना वैर बढ़ाता है), वह इस शरीर को
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