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यह ब्रह्मचर्यव्रत अहिंसा आदि पांच महाव्रतरूप शोभन व्रतों का मूल है, शुद्ध आचार या स्वभाव वाले मुनियों के द्वारा भावपूर्वक सम्यक् प्रकार से सेवित है, यह वैरभाव की निवृत्ति और उसका अन्त करने वाला है तथा समस्त समुद्रों में स्वयंभूरमण समुद्र के समान है 卐 (दुस्तर, किन्तु) तैरने का साधन होने के कारण तीर्थस्वरूप है।
O अहिंसा व गुक्ति का मार्गः अनासक्ति
{480 निव्वेएणं भन्ते! जीवे किं जणयइ? ___ निव्वेएणं दिव्व-माणुस-तेरिच्छि एसु कामभोगेसु निव्वेयं हव्व-मागच्छइ। सव्वविसएसु विरजइ। सव्वविसएसु विरजमाणे आरम्भ-परिच्चाई करेइ आरम्भपरिच्चायं करेमाणे संसारमग्गं वोच्छिन्दइ, सिद्धिमग्गे पडिवन्ने य भवइ॥
. (उत्त. 29/सू.3) भन्ते! निर्वेद (विषयविरक्ति) से जीव को क्या प्राप्त होता है? __(उत्तर-) निर्वेद से जीव देव, मनुष्य और तिर्यंच-सम्बन्धी काम-भोगों में शीघ्र है 卐 निर्वेद को प्राप्त होता है। निर्वेद से वह सभी विषयों में विरक्ति को प्राप्त होता है। सभी विषयों ॐ में विरक्त होकर आरम्भ अर्थात् हिंसा का परित्याग कर संसार-मार्ग का विच्छेद करता है
और सिद्धि-मार्ग को प्राप्त होता है।
(हिंसक भावना के प्रवर्तक तत्व)
FO हिंसा व क्रूर कगों का मूल:काग भोग-आसक्ति
(481)
काम-गिद्धे जहा बाले भिसं कूराई कुव्वई॥
(उत्त. 5/4) ___काम-भोग में आसक्त बाल जीव- अज्ञानी आत्मा क्रूर कर्म करता है।
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अहिंसा-विश्वकोश/209)