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FFFFFFFFFFFFFFFFFFFFE ॐ ठीक हुआ। उसके टुकड़े-टुकड़े कर डाले गये, यह अच्छा हुआ। इस प्रकार, किसी के न में पूछने पर भी आदेश-उपदेश अथवा कथन करते हुए, मन-वचन-काय से मिथ्या आचरण
करने वाले अनार्य, अकुशल, मिथ्यामतों का अनुसरण करने वाले मिथ्या भाषण करते हैं। ॐ ऐसे मिथ्याधर्म में निरत लोग ही मिथ्या कथाओं में रमण करते हुए, नाना प्रकार के असत्य
का सेवन करके सन्तोष का अनुभव करते हैं।
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महामतिभिर्निष्ठ्यूतं देवदेवैर्निषेधितम्। असत्यं पोषितं पापैर्दुःशीलाधमनास्तिकैः॥
(ज्ञा. 9/39/569) जिस असत्य वचन को बुद्धिमान मनुष्यों ने फेंक दिया है- उसका परित्याग कर 卐 दिया है- तथा जिसका जिनेन्द्रदेव के द्वारा निषेध किया गया है, उसका पोषण पापी व दुष्ट 卐
स्वभाव वाले निकृष्ट नास्तिक जनों ने ही किया है।
(हिंसा और पटिंग्रह)
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[जीवन की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु धन-धान्य व सम्पत्ति आदि का अर्जन करना होता है। वहां卐 ": अहिंसा-धर्म के आराधक को कुछ विवेक रखना अत्यावश्यक है, अन्यथा उसे हिंसा-दोष का पात्र होना पड़ेगा। ॐ अर्थोपार्जन में तीव्र आसक्ति 'हिंसा' को ही फलित करेगी। इसी तरह, चोरी या लूट-मार कर सम्पत्ति बटोरना आदि) जकार्य भी 'हिंसा' को ही प्रतिबिम्बित करेंगे। इस सन्दर्भ में जैन आचार्यों के जो उपादेय वचन हैं, उन्हें यहां प्रस्तुत卐
किया जा रहा है:-]
FO हिंसा और परिग्रह : परस्पर-सम्बद्ध
(435) हिंसापर्यायत्वात् सिद्धा हिंसाऽन्तरङ्गसङ्गेषु। बहिरङ्गेषु तु नियतं प्रयातु मूर्छव हिंसात्वम्॥
__(पुरु. 4/83/119) सभी (मूर्छा-जनित) अन्तरङ्ग परिग्रह आत्म-स्वभाव के घातक होने के कारण है 'हिंसा' रूप पर्याय ही हैं, अत: अन्तरंग परिग्रहों में हिंसा स्वयंसिद्ध है। बहिरंग परिग्रहों में है भी आत्मा-स्वभाव-विघातक ममत्व-भाव कारण रूप से विद्यमान है, अत: वहां भी । 'हिंसा' है। इस प्रकार 'मूर्छा' ही हिंसा रूप सिद्ध होती है।
E EEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEEN [जैन संस्कृति खण्ड/190